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भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan भारतीय दर्शन विश्व के प्राचीनतम दर्शनो में से एक है इसमें अनेक वैज्ञानिक सिंद्धान्तो को प्रतिपादि...

यथा दृष्टि तथा सृष्टि

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

जीवन जीने का वास्तविक तरीका यदि हम जान ले तो जीवन अपने आप सुन्दर हो जाएगा।
हम अक्सर देखते है कोई खुश है कोई दुःखी , कोई हँस रहा है कोई रो रहा है। दुनिया तो वही है एक जैसी परिस्तिथियों में भी किसी को दुःख तो किसी को सुख ?

वेदों में एक बहुत सुन्दर वाक्य है

"यथा दृष्टि तथा सृष्टि"
और यह हमारे जीवन का बहुत बड़ा वाक्य है। 

हमारी दृष्टि ही वास्तव में हमारी सृष्टि का निर्माण करती है। और हमारी दृष्टि का निर्माण या तो हमारे जीवन के पूर्व संस्कारो से होता है या हम अपनी इच्छा शक्ति से करते है। 


सुख दुःख जीवन का हिस्सा है वो अपने क्रम से आते रहेगे । उनसे कैसा डर वास्तव में सुख और दुःख दोनों ही महान शिक्षक है।
ये जब हमारी आत्मा से होकर जाते है उसपर चित्र अंकित कर देते है।  वही हमारे जीवन के संस्कार है । वो ही हमारी मानसिक प्रवर्ति और झुकाव का निर्माण करते है।
 यदि हम शान्त होकर स्वयं का अध्ययन कर तो पायेंगे हमारा हर क्रियाकलाप , सुख दुख , हँसना रोना, स्तुति निंदा सब मन के ऊपर बाह्य जगत के अनेक घात प्रतिघात का परिणाम है।
संसार मे जो कुछ क्रियाकलाप हम देखते जो हम देखते है वो केवल मन का ही खेल है । मनुष्य की इच्छाशक्ति का कमाल।
अपनी वर्तमान स्तिथि के जिम्मेदार हम ही है और जो कुछ हम होना चाहे , उसकी शक्ति भी हम ही में है। यदि हमारी वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व कर्मो का फल है तो ये भी सत्य है जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते है वह हमारे वर्तमान कर्मो द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
मनुष्य बिना हेतु के कोई कार्ये नही करता किसी को यश चाहिय, किसी को धन, किसी को पद, अधिकार, किसी को स्वर्ग तो किसी को मुक्ति ।
परन्तु यदि कोई मनुष्य पाँच दिन तो क्या पाँच मिनट भी बिना भविष्य का चिन्तन किये , स्वर्ग नर्क या अन्य किसी के सम्बंध में सोचे बिना निःस्वार्थ भाव से कार्ये कर ले तो वो महापुरुष बन सकता है।
मन की सारी बहिमुर्खी गति किसी  स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के लिये दौड़ती है । और अंत मे छीन भिन्न होकर बिखर जाती है। परन्तु आत्मसयंम से एक महान इच्छाशक्ति उत्पन्न होती है वह ऐसे चरित्र का निर्माण करता है जो जगत को इशारे पर चला सकता है।
जो मनुष्य कोई श्रेष्ठ नही जानते उन्हें स्वार्थ दृष्टि से ही नाम यश के लिये कार्ये करने दो। यदि कोई श्रेष्ठ एवम भला कार्ये करना चाहते है तो ये सोचने का कष्ट मत करो कि उसका परिणाम क्या होगा।
जीवन पथ पर अग्रसर होते होते वह समय अवश्य आयेगा जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ बन जायेंगे। और जब हम उस अवस्था मे आयेंगे हमारी समस्त शक्तियां केन्द्रीभूत हो जाएगी।
और ध्यान जीवन को इस मार्ग पर ले जाने का उत्तम मार्ग है यह हमें आत्मज्ञान के साथ संयम प्रदान करता है। इसका आसान तरीका है शुरुआत में सिर्फ सुबह 20 से 25 मिनट एकांत में सुखासन में बैठ कर आँखे बंद कर अपनी साँसों पर ध्यान लगाएं हर आने और जाने वाली है साँस पर।यह हमें आत्मज्ञान के साथ संयम प्रदान करता है।

इस लेख की प्रेरणा स्वामी विवेकानंद जी द्वारा रचित कर्मयोग से ली गयी है। जीवन को बेहतर बनाने के लिये स्वामी जी को जरूर पढ़ें।
-AC

Arunachalam Muruganantham, the first man to wear a sanitary pad. Padman

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
Arunachalam Muruganantham, the first man to wear a sanitary pad. Padman



अरुणाचलम मुरुगनाथं , पहला आदमी जिसने सैनिटरी पैड पहना ।  और कहलाया पैडमैन
हा दोस्तो आपने अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म पैडमैन के बारे में तो सुना होगा जो 26 जनवरी को सिनेमाघरों में आ जायेगी। मगर क्या आप जानते है ये फ़िल्म सच्ची कहानी पर आधारित है ..ये कहानी है। हमारे देश के एक सामाजिक उधोगपति अरुणाचलम मुरुगनाथं जी की।
ये पहले आदमी है जिन्होंने सैनिटरी पैड को पहना । लोगो ने इन्हें पागल कहा मगर आज इनके पास पदमश्री पुरस्कार है और इनकी कहानी पर फ़िल्म बन चुकी है। इन्हें 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इन्होंने खेतो में मजदूरी की और फिर ये इंसान 2014 में टाइम मैगजीन में छप गया। 2016 में इन्हें पदमश्री मिला।
आओ जानते है इनकी कहानी एक कहानी सच्चे हीरो की जिन्होंने भारत मे छुआछूत की तरह माने जाने वाले महिलाओ के पीरियड की तकलीफ को समझा और गाँव की गरीब महिलाओ के लिये सैनिटरी पैड बना कर लिख दिया इतिहास में अपना नाम, अरुणाचलम मुरुगनाथं का जन्म 1962 में तमिलनाडु के कोयम्बटूर में हुआ। मुरुगनाथं का बचपन गरीबी में बिता । इनके पिता का एक रोड एक्सीडेंट में देहांत हो गया था। इनकी माता ने खेतो में मजदूरी कर इन्हें पढ़ाने का प्रयास किया। मगर 14 साल की उम्र में इनकी पढ़ाई छूट गयी और घर का खर्च चलाने के लिए इन्होंने भी खेतो में मजदूरी, वेल्डर, और मशीन ऑपरेटर जैसे कामो को किया। 1998 में इनकी शादी शांति से हुई। एक दिन मुरुगनाथं ने देखा कि उनकी पत्नी पुराने कपड़े और रद्दी अखबार इकट्ठा कर रही है अपनी माहवारी के समय इस्तमाल करने के लिये।  क्योकि बड़ी कंपनियों द्वारा बनाये जाने वाले पैड बहुत महंगे थे और गाँव के गरीब लडकिया और महिलायें उन्हें खरीदने में सक्षम नही थी। इस बात ने उन्हें बेचैन कर दिया उन्हें महिलाओ की तकलीफ का  अहसास हुआ उन्होंने देखा के कैसे मज़बूरी में वो असुरक्षित तरीको का इस्तमाल कर रही है और उन्होंने सस्ते पैड बनाने का प्रयोग शुरू किया। उन्होंने रुई से पैड बनाये जिन्हें उन्होंने अपनी पत्नी और बहन को दिये । उन्होंने इन्हें रिजेक्ट कर दिया और उनके प्रयोग का हिस्सा बनने से मना कर दिया। क्योंकि भारतीय समाज मे पीरियड को एक अलग नजर से देखा जाता है और इसके बारे में महिलाये ज्यादा खुल कर बात नही कर पाती। उन्होंने महिला वोलियंटर्स की खोज की जो उनकी खोज को इस्तेमाल कर उन्हें रिजल्ट बात सके मगर कोई तैयार नही हुआ। 


मगर इस सबसे मुरुगनाथं ने हार नही मानी उन्होंने खुद पर इसका इस्तेमाल करने का फैसला लिया। मगर एक आदमी को पीरियड कैसे।? तो उन्होंने जानवरो के खून से भरा एक ब्लैडर इस्तमाल किया । और अपनी खोज पूरी होने के बाद इन्होंने अपने प्रोडक्ट को लोकल मेडिकल कॉलेज की लड़कियों में फ्री में बांटा और कहा कि यूज़ करने के बाद ये उन्हें वापस लौटा दे। अपने प्रयोग के दो साल बाद उन्हें पता लगा के कमर्शियल पैड सेलुलोस का इस्तेमाल करते है और यही फाइबर पैड को शोखने में मदद करता है। मगर अब दूसरी समस्या उनके सामने थी। पैड बनाने की मशीन की कीमत 35 मिलियन थी । तब उन्होंने एक कम कीमत की मशीन का निर्माण किया । और उन्होंने जो मशीन बनाई उसकी कीमत थी मात्र 65000 रुपय।
2006 में मुरुगनाथं ने IIT मद्रास में अपनी खोज को दिखाया । उन्होंने उनकी खोज को National Innovation Foundation के grassroot technological award के लिये नामित किया और इन्होंने वो अवार्ड जीत भी लिया। उन्हें कुछ पैसा मिला और उन्होंने Jayaasree industries की स्थापना की जो आज इन मशीनों को रूरल एरिया में महिलाओं को देती है और स्वयं सहायता समूह को मशीन देकर कार्ये किया जाता है। 
कई बड़े उधोगपतियो ने इनसे इस मशीन को लेने के आफर किये मगर इन्होंने बेचने से माना कर दिया और गांव में समूहों में देते रहे । उनके इस सामाजिक कार्ये के लिये इन्हें कई पुरस्कार भी मिले। आज इनकी खोज से गाँव देहात के इलाकों में कई महिलाओं को रोजगार और आय प्राप्त हो रही। उनकी इस समाज सेवा के लिये उन्हें पदमश्री से भी नवाजा जा चुका है। और आज मुरुगनाथं देश के जाने माने social entrepreneur है ये कई बड़े इंस्टीयूट में लेक्चर दे चुके है जिनमे IIT , IIM के साथ हावर्ड भी शामिल है।
और अब उनकी इस कहानी को अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म Padman के रूप में दिखाया जाएगा।
समाज की एक समस्या को देख कर उसके समाधान के उनके जज्बे और लगन को आज पूरा देश सलाम कर रहा है। 
अगर उनकी कहानी प्रेरणादायक लगे तो शेयर जरूर करे। 

-AC
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उषापान , एक वैज्ञानिक , चमत्कारी सर्वसुलभ मुफ्त उपचार

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
उषापान नवीन शोधो द्वारा मान्य , एक वैज्ञानिक , चमत्कारी सर्वसुलभ उपचार है 
उषापान के नाम से द्वारा उपचार भारत में सदियों से प्रचलित रहा  परन्तु समय के साथ ये ज्ञान विलुप्त सा  है। भारत में कुछ संस्थानों तथा जापान की एक संस्था 'सिकनेस एसोसिएशन ' ने अनेक अध्यनो के आधार पर इसे पुनः स्थापित  करने का प्रयास किया है आज हम इसी कड़ी में आपके समक्ष इसके बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी साझा करेंगे। 
उषापान -जल प्रयोग - वाटर थेरिपी  के लाभ - इस क्रिया  के लाभ जानकर। आपकी इसके पार्टी रूचि बढ़ेगी स्वस्थ शरीर वालो के लिए यह प्रयोग रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला है।  तथा निम्न बीमारियों से उपचार में  भी असरदार सहायक है  
1. सिरदर्द,रक्तचाप,एनीमिया ,जोड़ो का दर्द, मोटापा,अर्थराइट्स। 
2. कफ़ ,ख़ासी , दमा, टी.बी। 
3. लीवर सम्बन्धी रोग, पेशाब की बीमारी । 
4. हाइपर एसिडिटी , गैस , कब्ज़ ,डॉयबिटीज। 
5. नाक और गले की बीमारी। 
6. स्त्रियों की अनियमित माहवारी। 
उपरोक्त बीमारियों में नियमित अभ्यास से कुछ महा में असर दिखना प्रारम्भ हो जाता है 


विधि - यह प्रयोग सुबह सूर्योदय से पूर्व उठकर करना अधिक लाभ कर होता है।  अथवा जब जगे तभी इसे करे। 
सुबह उठते ही आवश्य्कता होने पर पेशाब करने के बाद बिना मंजन ब्रश किये एक लेटर तक जल ( व्यसक 60 kg  भर तक) तथा अधिक भर वाले सवा लीटर तक पानी एक करम में पिये। 
पानी उकडू बैठ कर पीना जयदा अच्छा होता है यदि रात  को तांबे  के बर्तन में रखा हो तो अधिक लाभकर होता है। 

विशेष ध्यान रखे - जिनको सर्दी लगती हो वो शरीर ठंडा रहता हो या कड़ी सर्दिया हो तो हल्का गर्म पानी पिये। 
जिनके शरीर में गर्मी रहती हो जलन रहती हो वो रार का रखा सादा पानी पिये। 
एक साथ न पी पाए तो शुरू में कुछ दिन दो -तीन बार में 5 -7 मिनट के अंतराल पर पिये। 
शुरू में 10 -15 दिन पेशाब  से लग सकता है। 
जो वातरोग एवम संधिवात से ग्रसित है उन्हें पहले सप्तह प्रयोग दिन में तीन बार (सुबह जागते ही , दोपहर में भोजन विश्राम के बाद , थाहा शाम ) करना लाभ कर है 

जल उकडू बैठ कर पीना तथा पिने के बाद खड़े होकर ताड़ासन , त्रियक ताड़ासन  तथा कटिचक्रासन के 5 -5 बार करना अधिक लाभ करता है। 

इसके अतिरिक्त भूख से काम खाये तथा खूब चबा चबा कर खाये 
खाने के साथ पानी न पिए तथा एक घंटे बाद खूब पानी पिए। 
यह रोगी तथा स्वस्थ सभी के लिए अपनाने योग्य है। 


वैज्ञानिक आधार - शरीर विज्ञानं की दृष्टि  से इसके पीछे निम्न कारण है 
रत में नींद के समय शरीर में काम हलचल होती है लेकिन इस समय पेट द्वारा भोजन पचाकर इसका रस  सारे  शरीर में पहुंचने का क्रम चलता है  रात  में शरीर  हलचल और पानी के काम प्रवाह के कारन शरीर में विषैले तत्व इकठा  है।  प्रातः जागते ही शरीर में पर्याप्त मात्रा में एक साथ पानी पहुंचने से शरीर की आंतरिक धुलाई हो जाती है।  और विजातीय पदर्थो और विष के शरीर से बहार निकलने की क्रिया सुलभ हो जाती है। 
यदि ये विजातीय पदार्थ या विष  बहार न निकले तो ये ही बीमारियों का कारन बनते है। 

उषापान बासी मुँह क्यों करे - मुँह में सोते समय शारीरिक विष की पर्त जैम जाती है एक साथ बहुत सारा पानी पिने से इनका एक हल्का घोल बनकर शरीर में जाता है जो वैक्सीन का काम करता है जिससे शरीर में एंटीबीटीज तैयार होते है इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है 
यह प्रयोग स्वस्थ - रोगी -गरीब -आमिर सभी के लिए बहुत उपयोगी है इसे स्वयं प्रयोग करे और अपने क्षेत्र में प्रचारित करे।  यह स्वास्थ्य की दृस्टि से बहुत उपयोगी एवं सरहानीय करए है। 

अपना सहयोग करे जयदा से जयदा लोगो तक इसे शेयर करे।  जानकारी को आगे बढ़ाने के लिए watsaap , फेसबुक अदि  पर लिंक शियर करे। 
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Right to education, शिक्षा का अधिकार

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
Right to education, शिक्षा का अधिकार

शिक्षा जो हर सभ्य समाज की मुख्य जरूरत है ताकि वो समाज वास्तविक तरक्की , आर्थिक के साथ वैचारिक तरक्की कर सके।
परन्तु आज अगर हम अपने देश में शिक्षा की स्तिथि को देखते तो लगता नही के हमारी सरकारों ने कभी इसे गंभीरता से लिया। जितना देश आगे की तरफ बढ़ रहा है शिक्षा वयवस्था उतनी पीछे की तरफ जा रही है। एक तरफ वो प्राइवेट स्कूल है जो फीस के नाम पर बच्चे के माँ बाप का खून भी चूस जाये। तो दूसरी ओर वो सरकारी स्कूल है जहाँ शिक्षा का बस नाम ही रह गया है। 


संविधान के छियासिवे संसोधन अधिनियम 2002 ने भारत के संविधान में निहित अनुच्छेद 21A में मौलिक अधिकार के रूप में 6  से 14 वर्ष के सभी बच्चो के लिये मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया तो 2009में शिक्षा का अधिकार कानून बनाया गया जिसमें निशुल्क और अनिवार्य बल शिक्षा अधिनियम 2009 में बच्चो का अधिकार जो 21A के तहत एकसमान गुणवक्ता वाली पुर्णकालिन प्राम्भिक शिक्षा प्रत्येक बच्चे का अधिकार है RTE अधिनियम जो 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ जिसमें निशुल्क और अनिवार्य शब्द जोड़ दिया गया।
इतना कुछ हुआ मगर कागजो में क्योकि सिर्फ कानून बनाने से क्या शिक्षा मिल गयी। जब हमारे देश के सरकारी स्कूलों में शिक्षक ही नही तो शिक्षा कहाँ से होगी सरकारी आकड़ो के अनुसार देश के प्राइमरी स्कूलों में लगभग 9 लाख शिक्षकों की कमी है । और ये कमी देश के लगभग हर राज्य में है।
और जो शिक्षक है भी उनमे कुछ  तो पढ़ाना नही चाहते । तो किसी को अन्य सरकारी कामो जैसे जनगणना , मतदान और मतगणना में लगा दिया जाता है। इसलिय सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या भी घटती जा रही है।
देश मे सरकारी स्कूल आज गरीबो का स्कूल ही बन गये क्योकि आज वही अपने बच्चो को सरकारी स्कूलों में डालते है जो प्राइवेट स्कूलों की मोटी फीस नही भर पाते नही तो लोगो ने आज अपनी हैसियत के हिसाब से प्राइवेट स्कूल चुन लिये । 
                                                   
सरकारी स्कूलों की खराब स्तिथि का फायदा ये मोटा मुनाफा कमाने वाले लोगों उठा रहे है। वो प्राइवेट स्कूल जिनके लिये शिक्षा सेवा नही बस एक धंदा है। आज कल ये स्कूल सिर्फ शिक्षा ही नही ड्रेस, कॉपी , पेंसिल और खाना सब बेच रहे है। एडमिशन के लिये मोटी रकम वसूली जाती है । कभी डेवलपमेंट के नाम पर तो कभी एक्टिविटी के नाम पर । और एक आम आदमी करे भी तो क्या वो अपने बच्चे के भविष्य के लिये सब कुछ करता है। क्योंकि देश की सरकारों ने शिक्षा का अधिकार कानून बना कर अपना दायित्व जो पूरा कर दिया है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा मिले ना मिले उसे सरकारों को क्या  मतलब । क्योकि अगर अच्छा पढ़ लिये तो कल अच्छी नौकरी मांगोगे । कम  से कम अब ये तो कहते हो के अच्छे स्कूल में नही पढ़ पाये इसलिय अच्छी नौकरी नही मिल पाई। सरकार को तो दोष नही देते।
मगर क्या शिक्षा और ज्ञान सिर्फ नौकरी के लिये होता है। अगर सरकारे हर नागरिक के लिये अच्छी शिक्षा की सही वयवस्था कर पाते है तो कल वो ज्ञान और शिक्षा देश के विकास में ही सहायक होगा। और जब हर नागरिक तक अच्छी और गुणवक्ता वाली शिक्षा आसानी से उपलब्ध होगी तभी इस शिक्षा के अधिकार कानून का कोई मतलब है। नही तो ये संविधान में लिखी एक लाइन मात्र है।
साथ ही हर शिक्षक को भी ये सोचने की आवश्यकता है के क्या हम अपने दायित्व को ईमानदारी से निभा रहे है। या हम सिर्फ एक सरकारी नौकरी कर रहे है। हमारे देश मे अनेको शिक्षक संघ है जो ना जाने कितने मुद्दों पर आंदोलन करते रहते है मगर कभी किसी ने शिक्षा व्यवस्था में सूधार के लिये सरकारों को कोई ज्ञापन नही दिया होगा किसी ने कभी स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ाने के प्रयास नही किये होंगे। 
                       
सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर का अनुमान इसी से लगया जा सकता है के ज्यादातर सरकारी शिक्षकों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में ही जाते है। अब ये कहना गलत न होगा के वो खुद अपनी दी हुई शिक्षा पर भरोसा नही करते।
सरकारी स्कूलों की स्तिथि सुधारने के लिये ये सुझाव भी गलत नही के सभी सरकारी कर्मचारियों के लिये अपने बच्चो को सरकारी स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य होना चाहिये। शायद अपने बच्चों का भविष्य देखकर उनका ध्यान इनके सुधार की ओर जाये ।
बच्चे देश का भविष्य है और शिक्षा इसका आधार। बिना अच्छी शिक्षा के ये आधार विहीन अंधकार की और जाता भाविष्य बहुत खतरनाक है।

अब अंत मे RTE(right to education)  के प्रवधानों को जान लेते है भारत सरकार के अनुसार Source http://mhrd.gov.in/hi/rte-hindi

आरटीई अधिनियम निम्‍नलिखित का प्रावधान करता है :

किसी पड़ौस के स्‍कूल में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा के लिए बच्‍चों का अधिकार।
यह स्‍पष्‍ट करता है कि 'अनिवार्य शिक्षा' का तात्‍पर्य छह से चौदह आयु समूह के प्रत्‍येक बच्‍चे को नि:शुल्‍क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने और अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने को सुनिश्चित करने के लिए उचित सरकार की बाध्‍यता से है। 
'नि:शुल्‍क' का तात्‍पर्य यह है कि कोई भी बच्‍चा प्रारंभिक शिक्षा को जारी रखने और पूरा करने से रोकने वाली फीस या प्रभारों या व्‍ययों को अदा करने का उत्‍तरदायी नहीं होगा।
यह गैर-प्रवेश दिए गए बच्‍चे के लिए उचित आयु कक्षा में प्रवेश किए जाने का प्रावधान करता है। 
यह नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में उचित सकारों, स्‍थानीय प्राधिकारी और अभिभावकों कर्त्‍तव्‍यों और दायित्‍वों और केन्‍द्र तथा राज्‍य सरकारों के बीच वित्‍तीय और अन्‍य जिम्‍मेदारियों को विनिर्दिष्‍ट करता है।
यह, अन्‍यों के साथ-साथ, छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर), भवन और अवसंरचना, स्‍कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्‍डों और मानकों को निर्धारित करता है।
यह राज्‍य या जिले अथवा ब्‍लॉक के लिए केवल औसत की बजाए प्रत्‍येक स्‍कूल के लिए रखे जाने वाले छात्र और शिक्षक के विनिर्दिष्‍ट अनुपात को सुनिश्चित करके अध्‍यापकों की तैनाती के लिए प्रावधान करता है, इस प्रकार यह अध्‍यापकों की तैनाती में किसी शहरी-ग्रामीण संतुलन को सुनिश्चित करता है। 
यह दसवर्षीय जनगणना, स्‍थानीय प्राधिकरण, राज्‍य विधान सभा और संसद के लिए चुनाव और आपदा राहत को छोड़कर गैर-शैक्षिक कार्य के लिए अध्‍यापकों की तैनाती का भी निषेध करता है।
यह उपयुक्‍त रूप से प्रशिक्षित अध्‍यापकों की नियुक्ति के लिए प्रावधान करता है अर्थात अपेक्षित प्रवेश और शैक्षिक योग्‍यताओं के साथ अध्‍यापक।
यह (क) शारीरिक दंड और मानसिक उत्‍पीड़न; (ख) बच्‍चों के प्रवेश के लिए अनुवीक्षण प्रक्रियाएं; (ग) प्रति व्‍यक्ति शुल्‍क; (घ) अध्‍यापकों द्वारा निजी ट्यूशन और (ड.) बिना मान्‍यता के स्‍कूलों को चलाना निषिद्ध करता है।
यह संविधान में प्रतिष्‍ठापित मूल्‍यों के अनुरूप पाठ्यक्रम के विकास के लिए प्रावधान करता है और जो बच्‍चे के समग्र विकास, बच्‍चे के ज्ञान, संभाव्‍यता और प्रतिभा निखारने तथा बच्‍चे की मित्रवत प्रणाली एवं बच्‍चा केन्द्रित ज्ञान की प्रणाली के माध्‍यम से बच्‍चे को डर, चोट और चिंता से मुक्‍त बनाने को सुनिश्चित करेगा।

अगर हम RTE  कानून के तहत लिखी गयी इन लाइन को पढ़े तो लगता है हमारी शिक्षा व्यवस्था कितनी अच्छी है जो शायद अच्छी शिक्षा के लिए आवश्यक लगभग सभी बिन्दुओ को समाहित किये हुए है।  नि:शुल्‍क प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने और अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने को सुनिश्चित करना , छात्र और शिक्षक के विनिर्दिष्‍ट अनुपात को सुनिश्चित करके अध्‍यापकों की तैनाती,  गैर-शैक्षिक कार्य के लिए अध्‍यापकों की तैनाती का भी निषेध, शारीरिक दंड और मानसिक उत्‍पीड़न;  अध्‍यापकों द्वारा निजी ट्यूशन और बिना मान्‍यता के स्‍कूलों को चलाना निषिद्ध , भवन और अवसंरचना, स्‍कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्‍डों और मानकों का निर्धारण 
देखा जाये तो कानून में सबकुछ है मगर क्या ये सही से लागु हो पाया ,क्या कभी सरकारों ने या  हमने कोई प्रयास किया इसके लिए शायद ये सबकी जिम्मेदारी है सरकारी , गैर सरकारी सामाजिक संगठनों सबको मिलकर प्रयास करना होगा क्योकि सवाल देश के भविष्य का है।  
आओ मिलकर प्रयास करे , देश के उज्वल भविष्य के लिए  अपने विचार और सुझाव हमें कमेंट में जरूर लिखे या मेल करे 


Reservation in India,आरक्षण कितना सही कितना गलत ?

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan


आरक्षण आज देश मे एक ज्वलंत मुद्दा बन रहा है आज देश के अलग अलग क्षत्रो में लोग आरक्षण के लिये आंदोलन करते दिख रहे है अजीब स्तिथि है देश की जहाँ लोग आगे आने के लिये काम करने के बजाय पिछड़ा बनने के लिये आंदोलन कर रहे है। कुछ राजनीतिक दल आज आरक्षण को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे है। देश मे जगह जगह चलने वाले आंदोलन काफी हद्द तक तो राजनीतिक दलों के इशारो पर ही चलते है।
आरक्षण एक ऐसी दोधारी तलवार बन गया है जो इलेक्शन जीताता भी है और हरवाता भी है अजीब है ना जो एक समुदाय के उत्थान के लिये बना था आज राजनीत का मुद्दा बन गया है। जिसका मकसद सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना है । किसी का विकास करना नहीं।
 स्वन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में दलितों एवं आदिवासियों की दशा अति दयनीय थी| इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी सोच समझकर इनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की और वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही सुविधाओं से वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधा मिलने लगी, ताकि देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके| उस समय हमारा समाज उच्च-नीच, जाति-पाति, छुआछूत जैसी कुरीतियों से ग्रसित था| 
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियां शिक्षा में आरक्षण लागू है| मंडल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद वर्ष 1993 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई| वर्ष 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया| इस प्रकार आज समाज का बहुत बड़ा  तबका   आरक्षण की सुविधाओं का लाभ प्राप्त कर रहा  है, लेकिन इस आरक्षण नीति का परिणाम क्या निकला | ये भी सोचने का विषय है क्या ये सविधान में निहित उद्देश्यों को पा सका है। 

आरक्षण की शुरूआत देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले ही हो गयी थी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने जब 1932 में भारत के दलित वर्ग और दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा तो गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया. उनका पक्ष ये था कि इससे हिन्दू समुदाय विभाजित हो जाएगा.
लेकिन डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने, जो दलित नेता  थे, इस प्रस्ताव को अपनी सहमति दी थी.


आख़िरकार दो बड़े नेताओं के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दलितों के लिए आरक्षण स्वीकार किया गया. बाद में आरक्षण को स्वतंत्र भारत के संविधान में शामिल किया गया. संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में SC  और ST  के लिए आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था, उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था। मगर यह अवधि नियमित रूप से आने वाली सरकारों द्वारा बढ़ा दी गयी ।
संविधान में दलितों के लिये आरक्षण को स्वीकार किए जाने के बाद ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया.
इसके लिए दिसंबर 1978 में मंडल कमीशन का गठन हुआ. मंडल कमीशन ने ओबीसी के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश की.
इन सिफ़ारिशों को भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार में आने के बाद लागू किया. इसके बाद अन्य वर्गों में भी आरक्षण का प्रावधान शुरू हो गया हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण किसी भी स्तिथि में 50 % से ज्यादा नही हो सकता हालांकि कुछ राज्यो में यह सीमा पर हो चुकी है।
भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आरक्षण को ख़त्म करने की राय रखता है. कई लोगों का सवाल है कि आख़िर जाति के आधार पर आरक्षण कब तक जारी रहेगा
दूसरी ओर आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के पक्ष में है. उनका कहना है कि आरक्षण की ज़रूरत आज भी है
दोनों ही पक्षो की बात गौर करने लायक है क्योंकि जहाँ आरक्षण के कारण कई बार अयोग्य लोगों आगे निकल जाते है और योग्य पीछे रह जाते है तो दूसरी और सदियों से दबे , कुचले समुदाय के लिये उस भेदभाव को खत्म किये बिना आरक्षण को हटाना क्या सही है।
क्या आज समय नही आ गया है के आरक्षण की ईमानदारी से समीक्षा की जाए। और सबसे पहला पक्ष वही हो जो इसके उद्देश्य में था दलितों और पिछड़ों का उत्थान। क्या हम मौजूद  आरक्षण व्यवस्था से उस लक्ष्य को प्राप्त कर पाये अगर नही तो क्यों? क्या ऐसा तो नही के आज सक्षम लोग ही इसका लाभ उठा पा रहे है और पिछड़ा और गरीब दलित आज भी वही का वही पड़ा है ।क्या उसे सही मौका मिल पा रहा है तो क्यो ना एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाय जिसमे जो सक्षम हो जाये, किसी सम्मनित पद पर आसीन हो, उच्च पदों पर पहुच गया हो उसे आरक्षण के दायरे से बाहर करे। क्योकि तब उसे आरक्षण देने का कोई मतलब नही। और साथ ही उसके हटने से आरक्षण की सुविधा उसी के  के समुदाय के निचले तबके तक पहुँच सकती है। क्योकि संसाधन सिमित है। 
मगर शायद किसी का मकसद दलितों और पिछड़ों का उत्थान है ही नही , कथाकतीथ पिछडो के नेताओ का मकसद भी सिर्फ उनके नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना है। क्योकि अगर नीयत सही होती तो ऐसा कोई कारण नही था के आज़ादी कर 70 साल बाद भी सभी पिछडो को मुख्य धारा में नही जोड़ पाते । देश और समाज का सबसे ज्यादा नुकसान इनके नाम पर होने वाली राजनीति और जातियो के नेता ही करते है। क्योंकि इनका मकसद सिर्फ सत्ता पाना ही रहता है।
एक और बहुत जरूरी बात है आरक्षण विरोधियों के लिये ज्यादातर लोग कहते है के उन्हें आरक्षण के कारण नोकरी या स्कूल कॉलेज में दाखिला नही मिल पाया । तो कुछ लोगो के लिये ये सही हो सकता है मगर सबके लिये नही क्योकि अगर एक बार आरक्षण हटा भी दे तो क्या सबको नोकरी मिल जायेगी। सोचिये जरा, नही ना क्योकि हमारे देश मे इतनी सरकारी नौकरियां है ही नही, यहाँ तो 100-200 पदों के लिये लाखो आवेदन आते है तो सोचिये सबको नौकरी और दाखिले कैसे मिल सकते है। आरक्षण की आड़ में तो हमारी सरकारें अपनी 70 साल की नाकामी को छुपाने के प्रयास करती है । के वो आज तक पर्याप्त अवसर पैदा ही नही कर पाये।
अगर हम कहते है के जातीय आधार पर आरक्षण खत्म कर देना चाहिये तो वो तब तक सम्भव नही जब तक हमारे समाज मे जातीय भेदभाव समाप्त नही हो जाता। तो इसके लिये हमारे समाज को हर तबके को इंसान के रूप में स्वीकर  करना होगा। भेदभाव को मन से मिटाना होगा तब हमें इस जातीय आरक्षण को पूर्ण रूप से समाप्त करने के बारे में सोचने का अधिकार होगा।
मगर साथ ही यदि आरक्षण के कारण अयोग्य लोग पदों पर आ जाते है तो वो भी गलत है सरकारों को किसी को कोई पद देने के लिये उसे उसके योग्य बनाने का प्रयास करना चाहिए ऐसा नही के 100 में से 0 वाले को भी सिर्फ इसलिये भर्ती कर लेते है कि उसकी सीट खाली है। 
साथ ही अगर हम अपने आज के समाज को देखे तो भेदभाव का जातियो के साथ साथ आर्थिक आधार भी हो गया है। क्योकि आज के दौर में गरीब भी मुख्य धरा से काट सा गया है ,और वो भी किसी अछूत से काम नही, तो क्यो ना आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू किया जाये। और साथ ही जातिय आरक्षण में भी आर्थिक स्तिथि को आधार बनाया जाए । जो सक्षम है अच्छी स्तिथि में है किसी उच्च पद पर है तो वो सामान्य ही है। अगर किसी प्रथम श्रेणी अधिकारी को आज भी लगता है के वो पिछड़ा है और उसके बच्चो को आरक्षण का अधिकार मिलना चाहिए तो मैं नही समझता के वो कभी मुख्य धारा में आ सकता है। या आरक्षण का उद्देश्य पूरा हो सकता है। क्योकि अगर उच्च पद पर आने के बाद भी वो पिछडा है तो उसका विकास कभी हो ही नही सकता। 
इसके लिये सामाजिक संघटनो और सरकारों को ईमानदारी से इसके लिये कार्ये करना होगा और समाज मे भेदभाव को खत्म करने का प्रयास करना होगा । मगर जो स्तिथ आज चल रही है तो उसमें तो समाज मे भेदभाव बढ़ ही रहा है। और शायद राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए विभिन्न समाजो के बीच बनती खाई को और ज्यादा गहरा करने का काम कर रहे है। तो उनसे तो ज्यादा उम्मीद करना गलत ही होगा। अब तो जिम्मेदारी आम नागरिकों की है के वो कैसा देश  चाहते है।

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उत्तराखण्ड पलायन एक राष्ट्रीय समस्या

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
उत्तराखण्ड पलायन एक राष्ट्रीय समस्या 

उत्तराखंड भारत देश का एक छोटा सा राज्य अनेको धार्मिक स्थल सुन्दर मनोहर प्राकतिक दृश्य मगर अपने ही लोगो से वंचित। दशको तक चले आन्दोलन के बाद 9 नवम्बर 2000 को एक नया राज्य अस्तित्व में आया। आंदोलनकरियो और राज्य की आम जनता को लगा उनका बरसो का सपना साकार हो गया। अलग राज्य के बनने के बाद अब विकास की रेलगाडी पहाड़ो की ऊचाईयों तक पहुँच जाएगी। मगर आज 17 साल बाद भी हालत जस के तस है। पलायन आज भी बदस्तूर जारी है। 
उत्तराखंड सरकार  के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी एक सरकारी आंकड़े के अनुसार जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार से ज्यादा मकानों पर ताले लग चुके हैं। एक गैर सरकारी संस्था 'पलायन : एक चिंतन’ के द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के अनुसार राज्य बनने के बाद से 16 सालों में 32 लाख लोगों ने पहाड़ से पलायन कर चुके है। सरकार और विपक्षी पार्टियां इस पलायन और विस्थापन पर मौन साधे हुए हैं 

मुझे आज भी कुछ साल पहले की एक घटना जब एक गाँव मे जहाँ कभी 10-15 परिवार रहा करते थे आज बस एक बूढ़ी माँ और उसकी एक पोती ही बचे है। जब उस बूढ़ी माँ से बात हुई तो उसने बताया के गाँव के सभी लोगो ने शहर में घर बना लिए और उसके बेटे काम के लिये दिल्ली में चले गए। ज्यादा पढ़े लिखे नही थे तो उसके बेटे मेहनत मजदूरी से अपना गुजार कर रहे थे। और वो अम्मा ने भी एक गाय पाली हुई थी । जिससे थोड़ा बहुत गुजारा हो जाता था । सामने ही खेत था जिसमे साक सब्जी लग जाती थी। उस अम्मा ने बातो ही बातो में बताया के कैसे एक रात बाघ ने उसके कुक्कर ( कुत्ते) के गले को पकड़ लिया था। जैसे तैसे ईश्वर की कृपा से वो बचकर घर मे आ पाया। पुराने दिनों को याद कर आज भी उनकी आँखें भर आती है। उनका हरा भरा गांव जिसमे आज ज्यादातर खंडहर ही बचे है। ये कहानी किसी एक बूढ़ी माँ या किसी एक गाँव की नही है। आज उत्तराखंड के ज्यादातर गाँव मे सिर्फ बूढ़े ही बचे है। जो कुछ मजबूरी के कारण तो कुछ अपने गाँव अपनी जन्मभूमि से लगाव के कारण
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में पलायन इन 17 वर्षों की ही समस्या है. काफी पहले से लोग रोजी रोटी के लिए मैदानों का रुख करते रहे हैं. एक लाख सर्विस मतदाता इस राज्य में है. यानी जो सेना, अर्धसैनिक बल आदि में कार्यरत है. ये परंपरा बहुत पहले से रही है. 

युवा आबादी गांवों से कमोबेश निकल चुकी है. बेहतर शिक्षा, बेहतर रोजगार और बेहतर जीवन परिस्थितियों के लिए उनका शहरी और साधन संपन्न इलाकों की ओर रुख करना लाजिमी है. पहाड़ो में गांव तेजी से खंडहर बन रहे हैं, रही सही खेती टूट और बिखर रही है. कुछ प्राकृतिक विपदाएं, बुवाई और जुताई के संकट, कुछ संसाधनों का अभाव, कुछ माली हालत, कुछ जंगली जानवरो के उत्पात और कुछ शासकीय अनदेखियों और लापरवाहियों ने ये नौबत ला दी है. पहाड़ों में जैसे तैसे जीवन काट रहे लोग अपनी नई पीढ़ी को किसी कीमत पर वहां नहीं रखना चाहते. 
लोग रहे भी तो कैसे ना शिक्षा , ना स्वास्थ्य, ना रोजगार, ना बिजली , सड़क जैसी बुनियादी सुविधायें, कही स्कूल नही , जहाँ स्कूल है वहाँ भवन नही , तो कही शिक्षक नही, कही अस्पताल नही तो कही अस्पतालों में डॉक्टर और दवाएं नही। दुर्गम क्षत्रो में तो हाल और भी बुरा है। ये किल्लत इस राज्य की नियति सी ही बन गयी है। गाँव तेजी से खंडहर बन रहे है, खेती टूट और बिखर रही हैं प्राकृतिक आपदाएं, संसाधनों के अभाव और शासकीय अनदेखी ने स्तिथि और विकट कर दी है।
घर की दहलीज़ पर बैठा वो बुज़र्ग जोड़ा आज भी पथराई आँखों से सड़क को देख़ते हुए  सोचता है  के ये सड़क जो शहर को जाती है लौट कर गावं भी तो आती होगी। 
ज्यादातर नेता आये तो इन गांवों से ही है मगर आज खुद भी देहरादून में सुविधाओं का आनंद लेने में व्यस्त है। बरसो से चुनावी वादा बनी गैरसैण भी इसी लिये राजधानी नही बन पायी क्योकि अब पहाड़ चढ़ने में नेताओ के भी सांस फूलते है। और राज्य की इस स्तिथि के लिये कोई एक नेता या राजनीतिक दल दोषी नही कमोबेश सबकी स्तिथि यही है सबको भूमाफियाओं, खनन माफियाओं और शराब माफियाओ की ज्यादा चिंता है। 
कुछ लोगो का कहना है कि पहाड़ी राज्य होने के कारण यहाँ सुविधाओं को पहुचा पाना संभव नही। स्विजरलैंड जैसे देशों की ओर अगर देखे तो क्या कोई कह सकता है पहाड़ पर सुविधाओं का पहुँचना मुश्किल है। अगर विदेश को ना भी देखे तो पड़ोसी राज्य हिमाचल की स्तिथि भी यहाँ से बहुत अच्छी है । उसने भी पर्वतीय संसाधनों से ही विकास किया है जैसे कृषि, पर्यटन, बागवानी, बिजली, हर्बल , योग आदि के विकास ।
क्या उत्तराखंड में ये सम्भव नही हो सकता। ऐसा नही है के लोग सिर्फ शहरी चकाचोंध के कारण यहाँ से पलायन कर रहे है।
पलायन का मुख्य कारण है बुनियादी सुविधाओं का अभाव । ज्यादातर लोग रोजगार के लिये अपनी जन्म भूमि को छोड़ कर जाते है। ज्यादातर आजीविका के लिये देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर या देल्ही , एनसीआर और मुंबई की और रुख करते है। पलायन को अगर पूरी तरह से रोक नही जा सकता तो इस पर लगाम जरूर लगाई जा सकती है।इसके लिये सरकारों को विशेष ध्यान देना होगा । जमीनी स्तर पर काम करना होगा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान देना होगा साथ ही पहाड़ के इलाकों में लघु उद्योग,पर्यटन, हर्बल उधोग, कृषि, कला और शिल्प से जुड़े उधोगो को बढ़ावा देना होगा। पलायन को रोकने के लिये आपात स्तर पर सरकारों को कार्ये करना पड़ेगा।
वरना खाली गाँव तस्करों के लिये वरदान साबित हो रहे है। जंगलो में लगने वाली आग और उनका अंधाधुन्द कटान जहाँ पर्यावरण के लिये खतरा है वही ये पहाड़ो पर आने वाली प्राकर्तिक आपदाओं के भी कारण है।

हालाकि हाल ही में राज्य सरकार ने पलायन के चलते खाली गावो और शहरों में बढ़ते दबाव को देखते हुए एक राज्य पलायन आयोग का गठन किया जिसका एलान खुद राज्य के मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी ने किया।
मगर क्या राजधानी चयन आयोग की भांति  ये भी जनता को दिया एक झुन झुना तो साबित नही होगा। वास्तव में इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए पक्ष और विपक्ष सबको मिलकर दृढ़ इच्छाशक्ति से राजनीति से परे कार्ये करने की आवश्यकता है।
हाल ही में प्रदेश के चीन की सीमा से सटे एक गाँव मे चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबर सुनाई दी थी। ऐसी घटनाओ का एक कारण पलायन भी है। जो इस मुद्दे की गंभीरता को समझने के लिये काफी है। तो पलायन सिर्फ एक प्रदेश और सिर्फ मानवीय भावनाओ से जुड़ा मुद्दा नही ये राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक राष्ट्रीय मुद्दा है । जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार होना चाहिये। और इसके समाधनो की और कार्ये करना चाहिये


योग को जाने समझे (अष्टांग योग)

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
     
                                                  योग को जाने समझे   (अष्टांग योग)

आज सभी लोग योग के नाम से परिचित होगे मगर जब भी योग शब्द का जिक्र आता है तो लोग उसे सिर्फ आसन या शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित समझते है। मगर सिर्फ आसन ही योग नही है वो मात्रा योग का एक अंग है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग चित्तवृत्ति का निरोध  है

  " योगश्चितवृत्तिनिरोध:।"

 योगसूत्र के रचनाकार पतञ्जलि हैं। योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।
 इसकी  सिद्धि के लिये उन्होंने योग के आठ  'अंग' बताये है  और जिन्हें अष्टांग योग कहाँ गया है अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। 


'यम' और 'नियम' वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं।

यम - यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है :
 (1)अहिंसा,
 (2) सत्य, 
(3) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए लालसा न रखना)
(4) ब्रह्मचर्य
(5) अपरिग्रह (धन संपत्ति का अनावश्यक संचय ना करना)

नियम- इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : 
(1) शौच,
(2) संतोष, 
(3) तप,
(4) स्वाध्याय (स्वयं का अध्ययन)
(5) ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। 

आसन-  "स्थिर सुखमासनम्‌" आसन से तात्पर्य है स्थिरभाव से सुखपूर्वक बहुत समय तक बैठ सके वही आसन है।

प्राणायाम-प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण + आयाम अर्थात प्राणों का विस्तार। आसन की स्तिथि में श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है।
प्राणायाम के अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। 

 प्रत्याहार-प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)। अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। 

 धारणा -देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना 'धारणा' कहलाता है।

ध्यान-ध्यान धारणा से आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। 

समाधि-ध्यान की परिपक्वास्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत्‌ हो जाता है यही समाधि की दशा कहलाती है।

अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम 'संयम' है जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है। 

कालांतर में योग की विभिन्न शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर प्रभाव डाला। "चित्तवृत्ति निरोध" को योग मानकर यम, नियम, आसन आदि योग का मूल सिद्धांत उपस्थित किये गये हैं। प्रत्यक्ष रूप में हठयोग, राजयोग और ज्ञानयोग - तीनों का मौलिक यहाँ मिल जाता है। इस पर भी अनेक ग्रन्थ  लिखे गये हैं। आसन, प्रणायाम, समाधि आदि विवेचना और व्याख्या की प्रेरणा लेकर बहुत से स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना हुई। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें 'विभूति' या 'सिद्धि' कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, ।

अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
Read more about yog  

What is Yoga ( astang yoga)

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

What is Yoga ( astang yoga)

Some time we refer yoga as the ashan or posture or physical exercise. but that asana and physical exercise are only a part of yoga which give strength to our body and makes us  free from many diseases .Maharishi Patanjali define yoga in his yoga shutra as follows

योग: चित्त-वृत्ति निरोध:
yogah citta-vṛtti-nirodhaḥ
 which means "Yoga is the inhibition (nirodhaḥ) of the "waves" or "disturbance" (vṛtti) of the "mind" or "consciousness” or “memory,” (citta)".Swami Vivekananda translates the sutra as "Yoga is restraining the mind-stuff (Citta) from taking various forms (Vrittis)."

In patanjali yoga shutra maharashi patanjali discribe eight limbs of yoga

Eight components or Limbs of yoga

In Patanjali yoga shutra there are eight limbs or aspects of yoga



1. Yamas

Yamas are ethical rules in meny religions like  Hinduism , Buddhism and Jainism and can be thought of as moral imperatives. Maharishi Patanjali listed The five yamas in Patanjali in Yogasutra 
  1. Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence, non-harming other living beings
  2. Satya (सत्य): truthfulness, non-falsehood
  3. Asteya (अस्तेय): non-stealing
  4. Brahmacārya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint
  5. Aparigraha (अपरिग्रहः): non-avarice,non-possessiveness
Patanjali,  states how and why each of the above self restraints help in the personal growth of an individual. 

2. Niyama

The second Limbs of Patanjali's Yoga path is called niyama, which includes habits, behaviors  the niyamas are
  1. Saucha: purity, clearness of mind, speech and body
  2. Santoṣa: satisfaction ,contentment, acceptance of others,  optimism for self
  3. Tapas: persistence, perseverance
  4. Svadhyaya: study of Vedas and other knowledgeable books, study of self, self-reflection, introspection of self's thoughts, speeches and actions
  5. Isvarapraṇidhana: contemplation of the Ishvara (God/Supreme Being, True Self)

As with the Yamas, Patanjali explains how and why each of the above Niyamas help in the personal growth of an individual

3. Asana

Patanjali begins discussion of Asana (आसन, posture) by defining it  as follows
स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥
 An asana is what is steady and pleasant.
Asana is thus a posture that one can hold for a period of time, staying relaxed, steady, comfortable and motionless. Patanjali does not list any specific asana, except the suggestion, "posture one can hold with comfort and motionlessness".  The posture that causes pain or restlessness is not a yogic posture. Other secondary texts studying Patanjali's sutra state that one requirement of correct posture is to keep breast, neck and head erect (proper spinal posture)
yoga scholars developed, described and commented on numerous postures. Padmasana (lotus), Veerasana (heroic), Bhadrasana (decent)
The Hatha Yoga Pradipika describes the technique of 84 asanas, stating four of these as most important: Padmasana (lotus), Bhadrasana (decent), Sinhasana (lion), and Siddhasana (accomplished).


according to some text lord shiva discribed 84 lakh ashan

4. Praṇayama

Praṇayama is made out of two Sanskrit words praṇa (प्राण, breath)  and ayama (आयाम, restraining, extending, stretching)
After a desired posture has been achieved, the next limb of yoga, praṇayama, which is the practice of consciously regulating breath (inhalation and exhalation) This is done in several ways, inhaling and then suspending exhalation for a period, exhaling and then suspending inhalation for a period, slowing the inhalation and exhalation, consciously changing the time/length of breath (deep, short breathing)

5. Pratyahara

Pratyahara is a combination of two Sanskrit words prati- (the prefix प्रति-, "towards") and ahara (आहार, "bring near")
Pratyahara is bringing near one's awareness and one's thoughts to within. It is a process of withdrawing one's thoughts from external objects, things, person, situation. It is turning one's attention to one's true Self, one's inner world, experiencing and examining self. It is a step of self extraction and abstraction. Pratyahara is not consciously closing one's eyes to the sensory world, it is consciously closing one's mind processes to the sensory world. Pratyahara empowers one to stop being controlled by the external world, and take one's attention to seek self-knowledge and experience the freedom innate in one's inner world

6. Dharaṇa

Dharana (Sanskrit: धारणा) means concentration, introspective focus 
Dharana as the sixth limb of yoga, is holding one's mind onto a particular inner state, subject or topic of one's mind. The mind (not sensory organ) is fixed on a mantra, or one's breath or any part of body, or an object one wants to observe,  Fixing the mind means one-pointed focus, without drifting of mind, and without jumping from one topic to another.

7. Dhyana

Dhyana (Sanskrit: ध्यान) simply known as meditation literally means "profound contemplation"
Dhyana is contemplating, reflecting on whatever Dharana has focused on. If in the sixth limb of yoga one focused on a personal deity, Dhyana is its contemplation. Dhyana is uninterrupted train of thought, current of cognition, flow of awareness.
Dhyana is integrally related to Dharana, one leads to other. Dharana is a state of mind, Dhyana the process of mind. Dhyana is distinct from Dharana in that the meditator becomes actively engaged with its focus. Patanjali defines contemplation (Dhyana) as the mind process, where the mind is fixed on something, and then there is "a course of uniform modification of knowledge".  Dhyana is the yoga state when there is only the "stream of continuous thought about the object, uninterrupted by other thoughts of different kind for the same object"; Dharana, states is focussed on one object, but aware of its many aspects and ideas about the same object. 

8. Samadhi


Samadhi (Sanskrit: समाधि) literally means "putting together, joining, combining with, union, harmonious whole, trance"
Samadhi is oneness with the subject of meditation. There is no distinction, during the eighth limb of yoga, between the actor of meditation, the act of meditation and the subject of meditation. Samadhi is that spiritual state when one's mind is so absorbed in whatever it is contemplating on, that the mind loses the sense of its own identity. The thinker, the thought process and the thought fuse with the subject of thought. There is only oneness, samadhi.

yoga is a group of physicalmental, and spiritual practices or disciplines. Yoga has been studied and may be recommended to promote relaxation, reduce stress and improve some medical conditions . In today's age yoga is adopted as holistic health care. There are many yoga school in India. 
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