कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
ये कहानी है अयोध्या के फैसले की आज अयोध्या में भगवान राम का मन्दिर भी जल्द बन जायेगा मगर ये कहानी है तब की जब फैसला अदालत में था।
ये कहानी है अयोध्या के फैसले की आज अयोध्या में भगवान राम का मन्दिर भी जल्द बन जायेगा मगर ये कहानी है तब की जब फैसला अदालत में था।
आज अयोध्या पर फैसला उच्चतम न्यायलय के समक्ष है कभी इसी अयोध्या नगरी के समक्ष सती नारी सीता का फैसला था। कहा जाता है के अग्नि में तप कर सोना कुन्दन बन जाता है लेकिन तब नारी अग्नि परीक्षा देकर भी अपने सतित्व का प्रमाण नहीं दे पायी।
जिन राम के मन्दिर के लिए आज मामला न्यायाधीश के समक्ष है तब वो राम स्वयं न्यायाधीश होकर भी न्याय ना कर सके। मगर शायद वो निर्णय ना तो उस राजा के लिए आसान रहा होगा ना ही उस पति के लिए। वो निर्णय उस न्यायशील राजा का न्याय था या उनके द्वारा भूल वश किया गया अन्याय।
आज कलयुग में भी न्यायालय साक्ष्य , गवाह मांगता है बड़े से बड़े दोषी को भी अपना पक्ष रखने का अवसर देता है परन्तु तब न तो किसी ने उस नारी का पक्ष सुना और साथ ही उस नारी के सभी साक्ष्यों को भी नज़रअंदाज़ किया गया। एक आक्षेप जनमत पर भारी क्यों था सवाल आसान है परन्तु निर्णय आसान न था।
सवाल जितना सरल दिखता है निर्णय उतना ही जटिल था वो तब भी उतना ही जटिल था और आज भी। क्योकि बात सिर्फ एक निर्णय की नही थी जो कुछ साक्ष्यों के आधार पर ले लिया जाए बात उस परम्परा की थी जो सदियों तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करें।
राम ने अपना राजधर्म निभाया सीता ने पतिव्रत धर्म और लव कुश ने अयोध्या नगरी में न्याय की याचना कर अपना पुत्रवत धर्म और आज फैसला करना था अयोध्या को।
मगर फैसला तो तब भी अयोध्या ने ही किया था जिसने राजा राम को ऐसा निर्णय करने पर विवश किया जिसने न सिर्फ राम को उनकी अर्धागिनी से अलग किया बल्कि एक पतिव्रता, देवी स्वरूप नारी को फिर से वनों की ठोकर खाने पर मजबूर कर दिया । हा फिर से क्योकि वो पहले भी तो 14 साल का वनवास काट कर आई थी जो उसके पति को मिला था उसने वनवास में अपने पति का साथ दिया मगर आज पति ने उसका साथ क्यो नही दिया ऐसी क्या मजबूरी थी उस पति की ?
यह कहानी किसी साधारण नारी की नही यह तो उस नारी की गाथा है जो एक राजा की पुत्री थी और उसी अयोध्या के राजा की पत्नी मगर कहते है ना एक व्यक्ति राजा बनने के बाद पहले एक राजा होता है फिर पुत्र, पिता या पति । उसके लिए राजधर्म ही सर्वोपरि होता है और होना भी चाहिए क्योकि राजा को तो ईश्वर का रूप माना जाता है और ईश्वर के लिये तो सभी एक समान होते है।इसलिये राजा के लिये भी प्रजा की हर एक आवाज़ महत्वपूर्ण होती है। इसलिये प्रजा में उठी वो आवाज़ उस राजा के लिए भी मत्त्वपूर्ण थी , वो आवाज़ जिसने जिसने उस सती नारी पर मिथ्या दोष मढ़े और उस नारी को वन में बेसहारा छोड़ने का दंड मिला। हाँ दण्ड ही तो था क्योंकि न्याय तो किसी के साथ हुआ ही नही ना उस नारी के साथ ना उसके पति के साथ।
आज उसका पति , राजसिंहासन पर अपने राजधर्म का पालन कर रहा है और वो नारी राजाज्ञा और पत्नीव्रत धर्म का। वो चहती तो इस अन्याय का विरोध कर सकती थी, वो चाहती तो उस नगरी और पति को छोड़ अपने पिता के घर भी जा सकती थी परन्तु उसके लिए अपने सुखों से ज्यादा पति का सम्मान महत्वपूर्ण था। इसलिये वो वन को चली गयी सब अपनो से मुख मोड़कर सब रिश्तों को तोड़ कर।
उस वन में उस नारी को आश्रय दिया एक महऋषि ने मगर वो नारी वहाँ भी बिना किसी पर आश्रित हुए स्वयं का जीवनयापन करती है अपने दो पुत्रों को जाम दे उनका लालन पालन कर उन्हें स्वाभिमान से जीना सिखाती है।
और एक दिन वो बालक अपनी माता की कथा जान पहुच जाते है उसी अयोध्या नगरी की गलियों में , उस नारी को न्याय दिलाने के लिये। और नियति का पहिया फिर ले आता है उस नारी को अयोध्या में उसी राजा, न्यायाधीश के समक्ष और फिर न्याय करना है उस अयोध्या को और एक बार फिर आना है अयोध्या का फैसला।
मगर क्या अर्थ है उस न्याय का , क्या अर्थ है उस फैसले का , राजा का धर्म है वो प्रजा में विरोध की एक भी आवाज़ को अनसुना ना करे मगर क्या एक आवाज़ के लिये बाकी सभी आवाज़ों को अनसुना कर देना धर्म है? खैर राजा अपना राजधर्म निभा रहा है और उस नारी को फिर से राजदरबार में बुला रहा है। उस नारी का धर्म है के उसके पति की कृति बनी रहे इसलिए वो फिर उस राजदरबार में उपस्थित है। अब फैसला अयोध्या को करना है उस प्रजा को करना है के क्या सही क्या गलत।
Nice👌
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