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भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan भारतीय दर्शन विश्व के प्राचीनतम दर्शनो में से एक है इसमें अनेक वैज्ञानिक सिंद्धान्तो को प्रतिपादि...

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धर्म का धंदा

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan


धर्म, वैसे तो ये बहुत ही व्यापक विषय है इसे समझना इतना आसान नही है परन्तु अगर सच्चे मन से चिंतन करे तो मनुष्य इसे समझ सकता है । धर्म के विषय मे तो हमारे धर्म ग्रंथो में बहुत कुछ लिखा है परन्तु आज धर्म को ना जानने और ना मानने वाले धर्म के ठेकेदार बने हुए है और इन्होंने अपने निजी स्वार्थों के कारण धर्म का भी धंदा बना दिया है।
मंदिरों में बैठ इन ठेकेदारों ने वहाँ दर्शनों के लिए VIP लाइन बना दी , जितने ज्यादा पैसे उतने जल्दी दर्शन , सुनकर बड़ा आश्चर्य होता है , ईश्वर जब इनके कृत्यों को देखता होगा तो सोचता होगा मेरे नाम पर तुमने क्या धंदा बना दिया ईश्वर तो सभी का बराबर है उसके लिए कोई बड़ा छोटा नही।
ये धर्म का धंदा यही नही रुकता पहले तो इन्होंने भीड़ इकट्ठा करने के लिए राम - कृष्ण जैसी दिव्यात्माओं की जीवन लीलाओं में फूहड़ नाच गाने को जोड़ा तो अब इन्हें ही नचावा दिया, क्योकि भीड़ इकठी होगी तो चंदा मिलेगा क्योकि धर्म इनके लिए एक धंदा बन चुका है।
दिव्यात्माओं के जीवन चरित्र को आने वाली पीढ़ियों तक पहुचाने के लिये हर गाँव, गली ,मुहल्ले में मण्डलीय होती थी कमाई बढ़ी तो ये कमेटियों का रूप ले चुकी है और इनमें अब पदों की लड़ाईया होती है इंसान अपने स्वार्थ में इतना गिर गया है के आज चंद रुपयों के लिए धर्मिक कार्यो को भी कलंकित कर रहा है 
अरे कभी उन राम ,कृष्ण के चरित्र को अच्छे से पढ़ो तो समझ आएगा कि तुम कितना गिर गये हो। और हम समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या संदेश दे रहे है । इन रामलीलाओं का क्या अर्थ रह गया अगर मंदिर जैसे पवित्र स्थानों और धर्म के कार्यो में भी गली गलौच और जूता चप्पल होने लगें। क्या इस मानसिकता से हम उन दिव्यात्माओं के चरित्र को प्रदर्शित कर पाएंगे।
मगर हम बड़े बड़े तिलक लगाकर ही अपने को धार्मिक समझ लेते है पर कभी स्वयं का मूल्यांकन करने का प्रयास ही नही करते। 
धर्म जैसे विषयों को भी अगर धंदा बना कर, चलो हमने कुछ कमा लिया तो सोचो, हम उसे लेकर जायगे कहाँ, 
अपने अहंकार के मद में चूर हम भूल जाते है 
"इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा।"
अहंकार तो रावण का नही रहा तो हम और आप तो क्या चीज है। 
अगर आप अनैतिक तरीको से ये सब अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए इकट्ठा कर रहे है तो क्या आप ये मान कर बैठे है , के आपकी आने वाली पीढ़ी आपसे भी ज्यादा नालायक है। जो अपने लिए कुछ कर भी नही सकती।
मैं ये तो नही कहूँगा के इन लोगो के कृत्यों से धर्म का नाश हो रहा है, क्योंकि नाश तो ये अपना और अपनी आने वाली पीढ़ियों का ही कर रहे है क्योंकि धर्म का नाश नही होता वो तो अटल है । व्यक्ति जरूर धर्म से भटक सकता है और जब कभी अधर्म वाले बढेगे तो फिर कोई आएगा उनके विनाश को , पुनः मानव ह्रदय में धर्म की स्थापना के लिए उसे सही मार्ग दिखाने के लिये। कभी राम,  कृष्ण बनकर तो कभी दयानंद और विवेकानंद बनकर । 
मगर ये हमे सोचना है के हम इन दिव्यात्माओं के जीवन और विचारों से कुछ सिख कर अपने जीवन को धर्म के मार्ग पर लगाना चाहते है या अधर्म के मार्ग पर चलकर अहंकार के मद में नीच जीवन जीना चाहते है।
-AC

ईश्वर स्तुति प्रार्थना

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan



         घोर अंधेरा छाया मन पर ,  प्रभु इसे हटाओ।
         माया जाल है कैसा फैला , प्रभु इसे मिटाओ।।

भोग विलासिता में फस कर, जीवन अधोगति में जाता।
पशुवत जीवन जी रहे है , नही मुक्ति मार्ग सुझाता ।।

          घोर अंधेरा छाया मन पर ,  प्रभु इसे हटाओ।
          माया जाल है कैसा फैला , प्रभु इसे मिटाओ।।

    दर्शन के अभिलाषी नयना, कभी तो रूप दिखलाओ।
    कण कण में है वास् तुम्हारा ,कभी तो सम्मुख आओ।

          घोर अंधेरा छाया मन पर ,  प्रभु इसे हटाओ।
           माया जाल है कैसा फैला , प्रभु इसे मिटाओ।

    हे सर्वज्ञ,  मैं अल्पज्ञ , मुझे ज्ञान मार्ग दिखलाओ।
   जिस मार्ग पर भेंट हो तुमसे मार्ग वो बतलाओ।।

         घोर अंधेरा छाया मन पर ,  प्रभु इसे हटाओ।
          माया जाल है कैसा फैला , प्रभु इसे मिटाओ।।


-AC

What is difference between योग and yoga?

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
आज पूरे विश्व में लोग योग के विषय में जानते है ये तो सच है मगर कितना ? क्या कभी सोचा है के योग वास्तव में है क्या ? क्या योग सिर्फ शरीरिक व्यायाम है लचीलापन प्राप्त करना ही योग का उद्देश्य है?
मुझसे किसी ने पूछा आप कितना घंटे योगा करते है?
मुझे बड़ा अचरज हुआ कोई योग का जानकार ऐसा सवाल तो नही पूछ सकता 
मित्रो योग दिन के कुछ घंटों के लिए की जाने वाली कोई क्रिया नही है ये तो एक जीवन पद्दति है जिसे आपको अपने जीवन मे अपनाना पड़ता है।हमेशा याद रखना

"योग किया नही जाता, योग जिया जाता है ।"

योग जीवन शैली है जिसे जीवन मे अपनाओगे जीवन को योगमय बनाओगे तभी योग के असली आनंद को प्राप्त कर पाओगे।
योग सिर्फ शरीर को प्रभावित करने वाली क्रिया नही ये तो आत्मा तक पर अपना प्रभाव डालती है अगर हम इसे सही अर्थों में समझ सके और इसे अपने जीवन मे सही रूप में अपनाये तो ये जीवन को परिवर्तित कर सकता है। परन्तु आज हम योग को जिस रूप में देख रहे है उसमें केवल शारीरिक व्यायाम जिन्हें योग की भाषा मे आसन कहा जाता है वही तक सीमित हो गया है।
लोग सिर्फ आसनों के प्रदर्शन में ही अपना सारा ध्यान लगा देते है । जबकि 

"योग प्रदर्शन का नही, दर्शन का विषय है"

जब तक आप इसे सही अर्थों में नही समझ पाएंगे योग को सही रूप में नही अपना पाएंगे और न ही इसका पूर्ण लाभ अपने जीवन मे पा सकेंगे।
ऐसा नही है शारीरिक व्यायाम से कोई लाभ नही , इसके भी अपने लाभ है परंतु वो लाभ सिर्फ शरीर तक ही सीमित है , आसन हमारे शरीर को दृढ़ता प्रदान करते है , शरीर को मजबूत करते है तो वही साथ ही जब इनके साथ प्राणायाम को भी किया जाता है तो हमे मानसिक शांति भी प्राप्त होता है। शरीर और मन दोनों व्यादि से मुक्त होते है और स्वास्थ्य को प्राप्त करते है ।
परन्तु योग इससे कही ज्यादा प्रदान करता है अगर हम इसे सही रूप में अपनाये। ये आपके शरीर को स्वस्थ बनाने के साथ जीवन को भी आनंद और सुख से भर देता है ये सुख शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक हर प्रकार का होता है।
योग लोक परलोक सभी को सुधारने वाला अद्भुत विज्ञान है।
विज्ञान इसलिए क्योंकि अगर किसी परिणाम को किसी निश्चित विधि द्वारा हर बार प्राप्त किया जा सके तो वो विज्ञान ही होता है।
अगर आप एक ज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन में योग को सही रूप में करे तो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक निश्चित ही प्राप्त होते है। और जिसे हर सुख प्राप्त हो उसे और क्या चाहिये।
योग को समझने के लिए इसके प्रमाणिक ग्रंथो का अध्ययन करना चाहिय और योग का सबसे प्रमाणिक ग्रंथ है 
"पंतजलि योग सूत्र"
पतंजलि योग सूत्र में योग की अवस्था को प्राप्त करने के मार्ग का पूर्ण वर्णन मिलता है
उसके अनुसार सदाहरण मानव के लिए योग का जो मार्ग बताया गया है वो है अष्टांग योग का मार्ग , अष्टांग योग के आठ अंगों में से सबसे प्रारंभिक है

यम- अहिंसा, सत्य , अस्तेय, ब्रह्मचर्ये, अपरिग्रह
नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्राणिधान

फिर उसके बाद आते है आसन, प्रणायाम, प्रतियहार, धारणा, ध्यान , समाधि।

इनमे सत्य और संतोष दो ऐसे विषय है जो आज के समाज मे मिलना सबसे कठिन है,  लोग अपने छोटे छोटे स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए झूठ बोलने में तनिक भी संकोच नही करते
और दुनिया मे फैले विभिन्न भोग विलास को देखकर वो संतोष को खो देते है। और फिर तलास करते है सच्चे सुख और आंनद की वो नही जानते के वो जिन मोह माया के बंधनों में सुख की तलाश कर रहे ही वो सभी भौतिक संसाधन सिर्फ दुःख के ही दे सकते है।
सांसारिक संसाधनों का उपयोग सिर्फ जीवन यापन तक ही सीमित होना चाहिये इसे अधिक नही । 
और  जीवन मे सदैव सत्य के पालन का प्रयास करना चाहिय अपने निजी स्वार्थों के लिए इस महाव्रत को कभी नही तोड़ना चाहिय तभी हम योग को सही मायनों में ग्रहण कर सकते है।
और अपने जीवन को योगमय बना सकते है।





भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

भारतीय दर्शन विश्व के प्राचीनतम दर्शनो में से एक है इसमें अनेक वैज्ञानिक सिंद्धान्तो को प्रतिपादित किया गया है।हमारे ऋषियो को अगर प्राचीन समय का वैज्ञानिक कहा जाये तो ये अतिशयोक्ति नही होगी। परन्तु आधुनिकता की दौड़ और स्वयं को विकसित कहलाने की होड़ में हमने अपने उस प्राचीन दर्शन को किनारे कर दिया जबकि वो एक महान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण दर्शन हैं।
अगर हम उस वैज्ञानिक दर्शन को समझकर उसका सहारा आधुनिक विज्ञान के विकास में ले तो हम भारतीय दर्शन के गूढ़ ज्ञान की सहायता से विज्ञान के नये आयामो को प्राप्त कर सकते है।
आज हम भारतीय दर्शन के एक सिद्धान्त की चर्चा आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष में करगे।
वो सिद्धान्त है प्रकृति और पुरूष का सिद्धान्त-
1.आधुनिक विज्ञान कहता है के ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों/ मैटर (matter) का निर्माण atom से हुआ है आधुनिक विज्ञान ने ये सिद्धान्त 18 वी शताब्दी में दिया वैसे तो यही सिद्धान्त 500 B. C. में महर्षि कणाद ने भी दिया था जिसमे उन्होंने उस तत्व को परमाणु कहा था।
परन्तु हम इससे भी पहले की बात कर रहे है संख्या दर्शन ने सभी पदार्थों के निर्माण का कारण प्रकृति को बताया। अगर हम कहे atom, परमाणु, प्रकृति एक ही चीज के नाम है तो ये गलत नही होगा क्योकि सभी सामान गुणों की ओर संकेत करते है।
2.भारतीये दर्शन के अनुसार प्रकृति त्रिगुणात्मक है जिसके तीन गुण है
रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुणयहाँ गुणों का अर्थ विशेषता नही है ये प्रकृति के ही भाग है।
आधुनिक विज्ञान में atom या परमाणु के तीन भाग है
इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन
3. रजोगुण की प्रवृत्ति गत्यात्मक है अर्थात ये सदैव गतिमान है आधुनिक विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रॉन भी सदैव गतिमान रहता है।
तमोगुण में भार होता है , यह स्थिरता प्रदान करता है और रजोगुण के विपरीत गुणों वाला है।
अगर हम प्रोटॉन की बात करे तो ये इलेक्ट्रान के विपरीत गुणों वाला है एक धनात्मक है दूसरा ऋणात्मक । प्रोटोन इलेक्ट्रान को उसकी कक्षा में बाधे रखता है क्योंकि दोनों विपरीत आवेशित है अतः ये परमाणु को स्थिरता प्रदान करता है। इलेक्ट्रान का भार नगण्य होता है और उसकी तुलना में प्रोटोन में भार होता है।
तीसरा सत्वगुण जो तटस्थ  होता है यह तमोगुण और रजोगुण की साम्यावस्था को बनाये रखता है।
न्यूट्रोन में भी कोई आवेश नही होता यह नाभिक में प्रोटॉन के साथ रहकर नाभिकीय बल उतपन्न करता है और प्रोटॉन को नाभिक से बांधे रखता है और इलेक्ट्रान और प्रोटॉन के बीच साम्यावस्था बनाये रखता है इसी कारण विपरीत आवेशों के होने के बाद भी इलेक्ट्रॉन -प्रोटॉन एक दूसरे की और अकर्षित होकर आपस मे नही टकराते।
4. भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति स्वयं से कुछ नही करती परंतु जब वो पुरुष के संपर्क में आती है तो उसकी साम्यावस्था भंग होती है और पदार्थ और सृस्टि का निर्माण होता है।
आधुनिक विज्ञान ने भी 2013 में एक परिकल्पना का प्रयोगात्मक सत्यापन किया जिसके अनुसार अलग अलग परमाणुओं को आपस मे जोड़कर अणु  को जन्म देने और  पदार्थ के निर्माण के पीछे एक और तत्व है जिसे उन्होंने नाम दिया " हिग्स बोसॉन " ये हिग्स बोसॉन परमाणु के लिए वही कार्ये करता है जो प्रकर्ति के लिए पुरूष।
5. भारतीय दर्शन में पुरूष का अर्थ आत्मा से होता है अर्थात आत्म तत्व को पुरूष कहा जाता है और यह आत्मा परमात्मा का अंश होती है।
आधुनिक विज्ञान में भी नए खोजे गए तत्व हिग्स बोसॉन को गॉड पार्टिकल (god particle) कहते है अर्थात आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी वो ईश्वर का अंश है।
तो अभी तक जो हमने जो समझा क्या वो महज इत्तेफाक है या जो आज आधुनिक विज्ञान जान रहा है वो हमारे ऋषियों को पहले से पता था। जिसे उन्होंने भारतीय दर्शनो में समझाने का प्रयास किया। तो ऐसा क्या था उनके पास जो वो उन तथ्यों को भी जानते थे  जिसे आधुनिक विज्ञान अभी तक समझने का प्रयास कर रहा है तो क्यो न हम कहे के उस समय का विज्ञान आज के विज्ञान से कही ज्यादा विकसित था। परन्तु अपनी अज्ञानता के कारण हम उसे अवज्ञानिक मानकर नकार देते है जबकि आवश्यक है उन भारतीय दर्शन के सिद्धांतों पर शोध करने की ताकि उस महान ज्ञान के द्वारा हम आधुनिक विज्ञान को अधिक विकसित कर सम्पूर्ण जगत को लाभ पहुचा सके।
मेरी बातों पर विचार कीजिए और इसमें निहित विचारो को ज्यादा से ज्यादा शेयर कीजिये।


क्या कपालभाति प्राणायाम है?

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
आज के समय मे कपालभाति को प्राणायाम के रूप में अत्यधिक प्रचलित किया जा रहा है जिसमे श्वास को तेजी से बाहर की ओर फेका जाता है। क्या वास्तव में ये प्राणायाम है? कुछ बड़े योगा गुरु भी इसे अत्यधिक प्रचारित कर रहे है जो कभी कभी मूर्खतापूर्ण प्रतीत होता है।
इसको समझने के लिए हमे सबसे पहले प्राणायाम को समझना होगा कि आखिर प्राणयाम है क्या?
               
                                   " प्राणस्य आयाम: इति प्राणायाम:”

जिसका अर्थ है की प्राण का विस्तार ही प्राणायाम कहलाता है | साधारण शब्दों में समझे तो प्राणों का लंबा करना अर्थात श्वास - प्रस्वाश का जो चक्र है उसके समय को बढ़ाना परन्तु जिस क्रिया को कपालभाति प्राणायाम के रूप में प्रचारित किया जा रहा है उसमें हो क्या रहा है।
अब हम योग के सबसे प्रमाणिक ग्रंथ पतंजलि योग सूत्र में प्राणायाम को परिभाषित करते हुए क्या कहा गया है उसे जानते है।
                                  " तस्मिन्सति श्वास प्रश्वास योगर्ती विच्छेद: प्राणायाम: "
अर्थात आसन की सिद्धि होने के बाद श्वास – प्रश्वास की जो गति है उसे विच्छेद करना |  यह भी उसी पूर्व के अर्थ की और संकेत करता है
इसका अर्थ है श्वास की गति को तेज करना किसी भी प्रकार से प्राणायाम नही है वह जो भी क्रिया हो वह प्राणायाम तो नही।
अब आते है दूसरे विषय पर कि क्या ये श्वास की गति को तेज करना कपालभाति है तो इसके लिए हम जानना जरूरी है कि कपालभाति है क्या कपालभाति शब्द का उल्लेख घेरण्ड सहिंता में मिलता है घरेण्ड सहिंता महर्षि घरेण्ड रचित हठ योग का एक ग्रंथ है जिसमे षट्कर्म के अंतर्गत इसका वर्णन है।
वो 6 क्रिया है
1.धौति 2.वस्ति 3. नेति 4.लोलिकी 5. त्र्याटक 6. कपालभाति
तो घरेण्ड सहिंता में कपालभाति का जो वर्णन है अब उसे भी जान लेते है।
                              " वातक्रमेण व्युत्क्रमेण शीत्क्रमेण विशेषतः ।
                                 भालभातिं त्रिधा कुर्यात्कफदोषं निवारयेत् ।। 55।। "
भावार्थ :- भालभाति ( कपालभाति ) क्रिया के वातक्रम, व्युत्क्रम व शीतक्रम नामक तीन विशेष प्रकार हैं । जिनका अभ्यास करने से साधक के सभी कगफ रोगों का निवारण ( समाप्त ) हो जाता है ।
घेरण्ड संहिता में कपालभाति क्रिया के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जिनका क्रम इस प्रकार है :-
1. वातक्रम कपालभाति, 2. व्युत्क्रम कपालभाति, 3. शीतक्रम कपालभाति ।
1. वातक्रम कपालभाति
                                       " इडया पूरयेद्वायुं रेचयेत्पिङ्गलया पुनः ।
                                         पिङ्गलया पूरयित्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत् ।। 56।। "
 भावार्थ :- इड़ा नाड़ी ( बायीं नासिका ) से श्वास को अन्दर भरें और पिंगला नाड़ी ( दायीं नासिका ) से श्वास को बाहर निकाल दें । फिर पिंगला नाड़ी ( दायीं नासिका ) से श्वास को अन्दर भरकर इड़ा नाड़ी ( बायीं नासिका ) से श्वास को बाहर निकाल देना ही वातक्रम कपालभाति होता है ।
2.व्युत्क्रम कपालभाति
                                           " नासाभ्यां जलमाकृष्य पुनर्वक्त्रेण रेचयेत् ।
                                             पायं पायं व्युत्क्रमेण श्लेषमादोषं निवारयेत् ।। 58। "
भावार्थ :- नासिका के दोनों छिद्रों से पानी को पीकर मुहँ द्वारा बाहर निकाल दें और फिर उल्टे क्रम में ही मुहँ द्वारा पानी पीकर दोनों नासिका छिद्रों से पानी को बाहर निकाल दें । इस व्युत्क्रम कपालभाति द्वारा साधक के सभी कफ जनित रोगों का नाश होता है ।
3.शीतक्रम कपालभाति
                                                 "शीत्कृत्य पीत्वा वक्त्रेण नासानालैर्विरेचयेत् ।
                                                    एवमभ्यासयोगेन कामदेवसमो भवेत् ।। 59।। "
 भावार्थ :- शीत्कार की आवाज करते हुए मुहँ द्वारा पानी पीकर नासिका के दोनों छिद्रों से बाहर निकाल दें । यह प्रक्रिया शीतक्रम कपालभाति कहलाती है । इसका अभ्यास करने से योगी का शरीर कामदेव की भाँति अत्यंत सुन्दर हो जाता है ।
अब अगर हम समझे तो इस हिसाब से तो श्वास को तेजी से बाहर फेकने वाली क्रिया कपालभाति भी नही है।
तो अब यही निष्कर्ष निकलता है कि तेजी से श्वास फेकना ना तो प्राणायाम है ना ही कपालभाति अब जो इसे प्राणायाम कह रहे है उन्ही से सवाल पूछना होगा कि वो इसे किस आधार पर ऐसा कह रहे है।


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what can help to fight coronavirus

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
आज पूरा विश्व कोरोना वायरस से डरा हुआ है। चीन से फैली ये बीमारी आज पूरे विश्व में अपने पैर फैला रही है। कोरोना वायरस ने आज महा मारी का रूप ले लिया है। वैसे तो कोई भी वायरस या बैक्टेरिया हमे तभी प्रभावित करता है जब हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। इसलिये किसी भी रोग या संक्रमण से लड़ने के लिए हमे अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना होगा।
यहाँ पर हमें एक चीज को समझना होगा के कपड़े सिलने के लिए सुई , तलवार से अधिक उपयुक्त है क्योंकि सूक्ष्म काम के लिए सूक्ष्म अधिक प्रभावी है उसी सूक्ष्म की शक्ति का उपयोग भारतीय संस्कृति में सदियों से किया जाता रहा है वो सुक्ष्म की शक्ति है यज्ञ। यज्ञ भारतीय परम्परा का अभिन्न अंग है जिसे आधुनिकता की दौड़ में हम भूलते जा रहे हैं हमारे शास्त्रों में ऋषियों ने कहा है
"अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभि:"
यानी ये यज्ञ भुवन की नाभि यानी ये यज्ञ इस सृष्टि का आधार बिन्दु है।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में हवन से ही दिनचर्या का आरम्भ होता था। यज्ञ की वैज्ञानिकता को कई शोध द्वारा सिद्ध भी किया गया है।
कोरोना वायरस में एक बात समझने की है के ये हमारे श्वसन तंत्र पर असर डालता है और यज्ञ का भी सबसे पहला प्रभाव श्वसन पर ही पड़ता है।
शांतिकुंज हरिद्वार के संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा जी ने रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि के लिए यज्ञ को बहुत उपयोगी बताया है और शांतिकुंज में इस संबंध में कई शोध भी हुए है। और अनेक प्रकार की हवन सामग्रियों को भी बताया है इसमें एक मुख्य सामग्री जिसे सभी रोगों में उत्तम माना जाता है वो इसप्रकार है
अगर, तगर, देवदारु, चन्दन, रक्त चन्दन, गुग्गल, जायफल, लौंग, चिरायता, अश्वगंधा, गिलोय एवम तुलसी इत्यादि को समान मात्रा में। मिलाकर उसमे दसवाँ भाग शक्कर तथा दसवाँ भाग घी मिलाकर प्रतिदिन हवन करें।
इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार की हवन सामग्री बतायी गयी है परन्तु एक दिन हवन करने से कोई विशेष लाभ होने वाला नही हवन को हमे अपनी दैनिक जीवन का हिस्सा बनाना होगा जिससे वायु शुद्ध होगी तथा हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी।
और हम कोरोना हो या अन्य कोई वायरस उससे लड़कर उसे हरा सकते है।
आज जिस प्रकार कोरोना वायरस फैल रहा है उसे हराने के लिए हमे यज्ञ कीऔर भी ध्यान देनहोगा तथा सरकार को इस ओर विशेष शोध भी करना चाहिए। साथ सही शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए हमे प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिए।  साथ ही सरकार तथा डॉक्टरों द्वारा दिये जा रहे निर्देशो का पालन करना चाहिए तथा साफ सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
जब सब मिलकर प्रयास करेंगे तो हम इस कोरोना वायरस को आसानी से हरा सकते है और फैलने से रोक सकते है।
सबको जागरुक करे और मिलकर कोरोना को हराये।

Yoga defined by Swami Vivekananda

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
                               " Arise! Awake! And stop not until the goal is reached." 
    
Swami Vivekananda is considered as a key figure in the introduction of Yoga to the Western world. Vivekananda described Yoga as a practice that joins a human to "reality" or "God". 
The Hindu concentrated on the internal world, upon the unseen realms in the Self, and developed the science of Yoga. Yoga is controlling the senses, will and mind. The benefit of its study is that we learn to control instead of being controlled. Mind seems to be layer on layer. Our real goal is to cross all these intervening strata of our being and find God. The end and aim of Yoga is to realise God. To do this we must go beyond relative knowledge, go beyond the sense-world. The world is awake to the senses, the children of the Lord are asleep on that plane. The world is asleep to the Eternal, the children of the Lord are awake in that realm. These are the sons of God. There is but one way to control the senses—to see Him who is the Reality in the universe. Then and only then can we really conquer our senses.  



Swami Vivekananda has influenced young minds to walk on the path of enlightenment for more than a centennial. Stretching his wings of spirituality out to the world, he started a revolution which still resonates among millions of his followers 
Every man must develop according to his own nature. As every science has its methods, so has every religion. The methods of attaining the end of religion are called Yoga by us, and the different forms of Yoga that we teach, are adapted to the different natures and temperaments of men. We classify them in the following way, under four heads:
(1) Karma-Yoga—The manner in which a man realises his own divinity through works and duty.
(2) Bhakti-Yoga—The realisation of the divinity through devotion to, and love of, a Personal God.
(3) Raja-Yoga—The realisation of the divinity through the control of mind.
(4) Jnana-Yoga—The realisation of a man's own divinity through knowledge.


These are all different roads leading to the same centre—God. Indeed, the varieties of religious belief are an advantage, since all faiths are good,so far as they encourage man to lead a religious life. The more sects there are, the more opportunities there are for making successful appeals to the divine instinct in all men. 
Each one of our Yogas is fitted to make man perfect even without the help of the others, because they have all the same goal in view. The Yogas of work, of wisdom, and of devotion are all capable of serving as direct and independent means for the attainment of Moksha. "Fools alone say that work and philosophy are different, not the learned.” The learned know that, though apparently different from each other, they at last lead to the same goal of human perfection.
Without non-attachment there cannot be any kind of Yoga. Non-attachment is the basis of all the Yogas. The man who gives up living in houses, wearing fine clothes, and eating good food, and goes into the desert, may be a most attached person. His only possession, his own body, may become everything to him; and as he lives he will be simply struggling for the sake of his body. Non-attachment does not mean anything that we may do in relation to our external body, it is all in the mind. The binding link of "I and mine" is in the mind. If we have not this link with the body and with the things of the senses, we are non-attached, wherever and whatever we may be. A man may be on a throne and perfectly non-attached; another man may be in rags and still very much attached. First, we have to attain this state of non-attachment and then to work incessantly. 
From a young age, he took delight in various subjects, including religion, philosophy, art, literature and social sciences. He was also drawn towards the sacred books of the Hindu religion. Bewitched in the charm of the wandering monks, he started meditating before the idols of Lord Shiva, Lord Rama and Mahavir Hanuman.
Curiosity in his eyes and the desire to get closer to the supreme power, he once asked his Guru, Sri Ramakrishna, “Have you seen God?” Without any qualms, his master replied, “Yes, I have. I see Him as clearly as I see you, only in a much intenser sense.” 

reference taken from The Complete Works of Swami Vivekananda

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blog ankush chauhan

The power of the mind, the science - Râja-Yoga

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

A man comes; you know he is very learned, his language is beautiful, and he speaks to you by the hour; but he does not make any impression. Another man comes, and he speaks a few words, not well arranged, ungrammatical perhaps; all the same, he makes an immense impression. Many of you have seen that. So it is evident that words alone cannot always produce an impression. Words, even thoughts contribute only one-third of the influence in making an impression, the man, two-thirds. What you call the personal magnetism of the man — that is what goes out and impresses you. 
   
 In our families there are the heads; some of them are successful, others are not. Why? We complain of others in our failures. The moment I am unsuccessful, I say, so-and-so is the cause of the failure. In failure, one does not like to confess one's own faults and weaknesses. Each person tries to hold himself faultless and lay the blame upon somebody or something else, or even on bad luck. When heads of families fail, they should ask themselves, why it is that some persons manage a family so well and others do not. Then you will find that the difference is owing to the man — his presence, his personality. 


Coming to great leaders of mankind, we always find that it was the personality of the man that counted. Now, take all the great authors of the past, the great thinkers. Really speaking, how many thoughts have they thought? Take all the writings that have been left to us by the past leaders of mankind; take each one of their books and appraise them. The real thoughts, new and genuine, that have been thought in this world up to this time, amount to only a handful. Read in their books the thoughts they have left to us. The authors do not appear to be giants to us, and yet we know that they were great giants in their days. What made them so? Not simply the thoughts they thought, neither the books they wrote, nor the speeches they made, it was something else that is now gone, that is their personality. As I have already remarked, the personality of the man is two-thirds, and his intellect, his words, are but one-third. It is the real man, the personality of the man, that runs through us. Our actions are but effects. Actions must come when the man is there; the effect is bound to follow the cause.

The ideal of all education, all training, should be this man-making. But, instead of that, we are always trying to polish up the outside. What use in polishing up the outside when there is no inside? The end and aim of all training is to make the man grow. The man who influences, who throws his magic, as it were, upon his fellow-beings, is a dynamo of power, and when that man is ready, he can do anything and everything he likes; that personality put upon anything will make it work.

Now, we see that though this is a fact, no physical laws that we know of will explain this. How can we explain it by chemical and physical knowledge? How much of oxygen, hydrogen, carbon, how many molecules in different positions, and how many cells, etc., etc. can explain this mysterious personality? And we still see, it is a fact, and not only that, it is the real man; and it is that man that lives and moves and works, it is that man that influences, moves his fellow-beings, and passes out, and his intellect and books and works are but traces left behind. Think of this. Compare the great teachers of religion with the great philosophers. The philosophers scarcely influenced anybody's inner man, and yet they wrote most marvelous books. The religious teachers, on the other hand, moved countries in their lifetime. The difference was made by personality. In the philosopher it is a faint personality that influences; in the great prophets it is tremendous. In the former we touch the intellect, in the latter we touch life. In the one case, it is simply a chemical process, putting certain chemical ingredients together which may gradually combine and under proper circumstances bring out a flash of light or may fail. In the other, it is like a torch that goes round quickly, lighting others.



The science of Yoga claims that it has discovered the laws which develop this personality, and by proper attention to those laws and methods, each one can grow and strengthen his personality 

they came to certain remarkable conclusions; that is, they made a science of it. They found out that all these, though extraordinary, are also natural; there is nothing supernatural. They are under laws just the same as any other physical phenomenon. It is not a freak of nature that a man is born with such powers. They can be systematically studied, practiced, and acquired. This science they call the science of Râja-Yoga.   


words from-

swami vivekananda

THE POWERS OF THE MIND
(Delivered at Los Angeles, California, January 8, 1900 )
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Rishikesh, the yoga capital of the world

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

 Rishikesh , a beautiful city Located in the foothills of the Lower Himalayas, in the Tehri-Garhwal region of Uttarakhand, this holy town serves as a starting point for the other religious hubs in the state – Badrinath, Gangotri, Kedarnath and Yamunotri (part of the ‘Char Dham’ pilgrimage route) . also Known as yoga capital of the world. It is famous for yoga and meditation, pilgrimage and also hot destination for rafting and camping. 

For those who are looking for a break of the spiritual kind, Rishikesh has a host of ashrams and yoga centres, offering lessons in yoga and meditation, besides other spiritual activities. 
There are many yoga ashrams and all kind of yoga and meditation classes. Rishikesh is situated on the bank of river ganga at the foothills of Himalaya. It is one of the holiest place for hindus that's why many sages and saints and yoga masters have been visiting the city.and it is the yoga teacher training hub across the world. There are many ashram or yoga school which are providing yoga teacher training. Rishikesh is full of spiritual energy because of ganga and the Himalaya. Lush greenery , pure water and fresh air and untouched natural beauty make it more beautiful.

Rishikesh boasts of relatively pleasant weather all-year round – neither too hot nor too cold. Temperatures in summer (March to June) range from 20C to 35C, though they can – and occasionally do – touch 40 C in peak summer. During winters (October to February), temperatures reach a low of 5 C and a high of 20 C. The town’s climate is ideal for indulging in outdoor activities almost throughout the year


 Rishikesh is the home to some of the most reputed yoga school and ashram because of its such a rich rich yoga and spiritual heritage. 

Rishikesh also attract visitors for rafting and camping and for many adventure activity. Other places to visit here are Ram jhula, parmarth niketan, gita bhawan, triveni ghat, neelkanth temple etc.

 It is well connected with road , air and railway by different cities of india. Neatest airport is at jolly Grant airports in dehradun approximately 35 to 40 km Neatest railway station is rishikesh but you should choose haridwar which is well connected with other cities of india and is 20 km from rishikesh Rishikesh is well connected with Major cities via motorable road  
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The true yoga

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

योग हजारो वर्षो से भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों और अन्य मत्वपूर्ण ग्रंथों में योग का ज़िक्र मिलता है। और ऐसे भी कई ग्रंथ है जो पूर्ण रूप से ही योग को समर्पित है। परन्तु आज के आधुनिक युग मे योग, योगा बनकर सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया तक ही सीमित हो गया है। कही रेतीले बिच पर तो कही गर्म  हवाओ के बीच कठिन आसन कराकर उसे ही योग के नाम पर बेचा जा रहा है। वो जीविकोपार्जन का माध्यम हो सकते है परन्तु योग नही। वास्तव में योग मात्र एक शारीरिक प्रक्रिया नही यह तो शारीरिक के साथ मानसिक, वैचारिक, दार्शनिक, आद्यात्मिक प्रक्रिया है या यूं कहें के परम्परा से चली आ रही एक उत्कृष्ठ जीवन शैली है। ये तो उत्तम जीवन जीने की एक कला है।
आप खुद विचार कीजिये यदि सिर्फ शरीर को लचीला बनाकर उसे तोड़ना, मोड़ना ही योग है तो क्या आप सड़क/सर्कस में करतब/ खेल दिखाने वाले जो एक छोटे से घेरे से अपने पूरे शरीर को निकाल लेते है? योगी है क्या वो योग कर रहे है? नही ना 
तो वास्तिविक योग है क्या और जिन आसनो को ही हम योग समझ रहे है वो क्या है?
वास्तव में आसन योग का एक महत्वपूर्ण अंग जरूर है परन्तु पूर्ण योग नही । योग के प्रमुख ग्रंथ महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में आसन को समझते हुए कहा गया है।

                              स्थिरसुखमासनम्  (पतंजलि योग सूत्र 2 /46  )

अगर इसे समझे तो इसमें स्थिर , सुख और आसन है अर्थात जिस अवस्था मे सुखपूर्वक स्थिर राह सके  वही आसन है। अर्थात इसमें शरीर की स्थिरता और सुख महत्वपूर्ण है। आप चाहे कितना भी कठिन आसन लगये अगर उसमे स्थिरता नही सुख की अनुभूति नही वो आसन नही। वो व्यायाम हो सकता है । और दूसरी बात अगर आप आसन की अवस्था को भी प्राप्त कर लेते है तो वो सिर्फ आसन है योग नही । योग आसन का एक हिस्सा है योग नही।
वैसे तो हमारे ग्रंथो में योग के कई रूपो का वर्णन है जैसे राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, लययोग, ज्ञानयोग, मंत्रयोग, हठयोग इत्यादि परंतु अगर सही अर्थों में कहे तो ये एक दूसरे से भिन्न जरूर दिखते है परन्तु ये सब एक ही है क्योकि इन सबका उद्देश्य एक ही है। साधारण शब्दो मे कहे तो ये एक मंजिल को प्राप्त करने के अलग अलग मार्ग है। किसी भी मार्ग पर चलकर योग के चरम को प्राप्त किया जा सकता है।

अगर हम राजयोग को माध्य्म बनाकर योग को समझे तो पतंजलि कृत योग सूत्र में योग के आठ अंग बातये है जिस कारण इसे योग भी कहते है।


इसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रतिहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये बातये है इसके अनुसार भी आसन मात्र एक अंग है। इसके साथ अन्य भागों को भी महत्व दिया जाना चाहिय।
पतंजलि योग सूत्र की ही योग की एक अन्य परिभाषा से  भी योग को समझने का प्रयास करते है

                  योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः  (पतंजलि योग सूत्र 1 /2 )

चित्त की वृतियों के निरोध को ही योग कहते है। इस आधार पर भी योग शारीरक के साथ मानसिक प्रक्रिया है। क्योकि इसमें चित्त  है चित्त का तत्प्रय अन्तःकरण से है ।अर्थात मन, बुद्धि, अहंकार , आत्मा ये सभी चित्त का हिस्सा है। इस चित्त को ज्ञानेद्रियों द्वार ग्रहण किये गये विषयो से रोकना ही योग है। या कहे के चित्त की निर्मलता ही योग है इसी से कैवल्य की प्राप्ति होती है। और योग की सभी विधाएं चित्त की वृतियों को रोकने का माध्यम है। 
अर्थात जब तक मन मे सत्यता , पवित्रता, परोपकार इत्यादि गुण नही आ जाते तब तक योग संभव नही।

अतः योग तभी सिद्ध होगा जब वो जीवन मे उतर जाएगा। आपके जीवन , अचार - विचार का एक हिस्सा बन जायेगा। अगर योग करने के साथ आप भोगविलसित मे लगे है तो वो योग नही जीविकोपार्जन का एक माध्यम है जो मात्र एक शारीरिक व्यायाम है।

-AC

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यथा दृष्टि तथा सृष्टि

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

जीवन जीने का वास्तविक तरीका यदि हम जान ले तो जीवन अपने आप सुन्दर हो जाएगा।
हम अक्सर देखते है कोई खुश है कोई दुःखी , कोई हँस रहा है कोई रो रहा है। दुनिया तो वही है एक जैसी परिस्तिथियों में भी किसी को दुःख तो किसी को सुख ?

वेदों में एक बहुत सुन्दर वाक्य है

"यथा दृष्टि तथा सृष्टि"
और यह हमारे जीवन का बहुत बड़ा वाक्य है। 

हमारी दृष्टि ही वास्तव में हमारी सृष्टि का निर्माण करती है। और हमारी दृष्टि का निर्माण या तो हमारे जीवन के पूर्व संस्कारो से होता है या हम अपनी इच्छा शक्ति से करते है। 


सुख दुःख जीवन का हिस्सा है वो अपने क्रम से आते रहेगे । उनसे कैसा डर वास्तव में सुख और दुःख दोनों ही महान शिक्षक है।
ये जब हमारी आत्मा से होकर जाते है उसपर चित्र अंकित कर देते है।  वही हमारे जीवन के संस्कार है । वो ही हमारी मानसिक प्रवर्ति और झुकाव का निर्माण करते है।
 यदि हम शान्त होकर स्वयं का अध्ययन कर तो पायेंगे हमारा हर क्रियाकलाप , सुख दुख , हँसना रोना, स्तुति निंदा सब मन के ऊपर बाह्य जगत के अनेक घात प्रतिघात का परिणाम है।
संसार मे जो कुछ क्रियाकलाप हम देखते जो हम देखते है वो केवल मन का ही खेल है । मनुष्य की इच्छाशक्ति का कमाल।
अपनी वर्तमान स्तिथि के जिम्मेदार हम ही है और जो कुछ हम होना चाहे , उसकी शक्ति भी हम ही में है। यदि हमारी वर्तमान अवस्था हमारे पूर्व कर्मो का फल है तो ये भी सत्य है जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते है वह हमारे वर्तमान कर्मो द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
मनुष्य बिना हेतु के कोई कार्ये नही करता किसी को यश चाहिय, किसी को धन, किसी को पद, अधिकार, किसी को स्वर्ग तो किसी को मुक्ति ।
परन्तु यदि कोई मनुष्य पाँच दिन तो क्या पाँच मिनट भी बिना भविष्य का चिन्तन किये , स्वर्ग नर्क या अन्य किसी के सम्बंध में सोचे बिना निःस्वार्थ भाव से कार्ये कर ले तो वो महापुरुष बन सकता है।
मन की सारी बहिमुर्खी गति किसी  स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के लिये दौड़ती है । और अंत मे छीन भिन्न होकर बिखर जाती है। परन्तु आत्मसयंम से एक महान इच्छाशक्ति उत्पन्न होती है वह ऐसे चरित्र का निर्माण करता है जो जगत को इशारे पर चला सकता है।
जो मनुष्य कोई श्रेष्ठ नही जानते उन्हें स्वार्थ दृष्टि से ही नाम यश के लिये कार्ये करने दो। यदि कोई श्रेष्ठ एवम भला कार्ये करना चाहते है तो ये सोचने का कष्ट मत करो कि उसका परिणाम क्या होगा।
जीवन पथ पर अग्रसर होते होते वह समय अवश्य आयेगा जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ बन जायेंगे। और जब हम उस अवस्था मे आयेंगे हमारी समस्त शक्तियां केन्द्रीभूत हो जाएगी।
और ध्यान जीवन को इस मार्ग पर ले जाने का उत्तम मार्ग है यह हमें आत्मज्ञान के साथ संयम प्रदान करता है। इसका आसान तरीका है शुरुआत में सिर्फ सुबह 20 से 25 मिनट एकांत में सुखासन में बैठ कर आँखे बंद कर अपनी साँसों पर ध्यान लगाएं हर आने और जाने वाली है साँस पर।यह हमें आत्मज्ञान के साथ संयम प्रदान करता है।

इस लेख की प्रेरणा स्वामी विवेकानंद जी द्वारा रचित कर्मयोग से ली गयी है। जीवन को बेहतर बनाने के लिये स्वामी जी को जरूर पढ़ें।
-AC

उषापान , एक वैज्ञानिक , चमत्कारी सर्वसुलभ मुफ्त उपचार

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उषापान नवीन शोधो द्वारा मान्य , एक वैज्ञानिक , चमत्कारी सर्वसुलभ उपचार है 
उषापान के नाम से द्वारा उपचार भारत में सदियों से प्रचलित रहा  परन्तु समय के साथ ये ज्ञान विलुप्त सा  है। भारत में कुछ संस्थानों तथा जापान की एक संस्था 'सिकनेस एसोसिएशन ' ने अनेक अध्यनो के आधार पर इसे पुनः स्थापित  करने का प्रयास किया है आज हम इसी कड़ी में आपके समक्ष इसके बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी साझा करेंगे। 
उषापान -जल प्रयोग - वाटर थेरिपी  के लाभ - इस क्रिया  के लाभ जानकर। आपकी इसके पार्टी रूचि बढ़ेगी स्वस्थ शरीर वालो के लिए यह प्रयोग रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला है।  तथा निम्न बीमारियों से उपचार में  भी असरदार सहायक है  
1. सिरदर्द,रक्तचाप,एनीमिया ,जोड़ो का दर्द, मोटापा,अर्थराइट्स। 
2. कफ़ ,ख़ासी , दमा, टी.बी। 
3. लीवर सम्बन्धी रोग, पेशाब की बीमारी । 
4. हाइपर एसिडिटी , गैस , कब्ज़ ,डॉयबिटीज। 
5. नाक और गले की बीमारी। 
6. स्त्रियों की अनियमित माहवारी। 
उपरोक्त बीमारियों में नियमित अभ्यास से कुछ महा में असर दिखना प्रारम्भ हो जाता है 


विधि - यह प्रयोग सुबह सूर्योदय से पूर्व उठकर करना अधिक लाभ कर होता है।  अथवा जब जगे तभी इसे करे। 
सुबह उठते ही आवश्य्कता होने पर पेशाब करने के बाद बिना मंजन ब्रश किये एक लेटर तक जल ( व्यसक 60 kg  भर तक) तथा अधिक भर वाले सवा लीटर तक पानी एक करम में पिये। 
पानी उकडू बैठ कर पीना जयदा अच्छा होता है यदि रात  को तांबे  के बर्तन में रखा हो तो अधिक लाभकर होता है। 

विशेष ध्यान रखे - जिनको सर्दी लगती हो वो शरीर ठंडा रहता हो या कड़ी सर्दिया हो तो हल्का गर्म पानी पिये। 
जिनके शरीर में गर्मी रहती हो जलन रहती हो वो रार का रखा सादा पानी पिये। 
एक साथ न पी पाए तो शुरू में कुछ दिन दो -तीन बार में 5 -7 मिनट के अंतराल पर पिये। 
शुरू में 10 -15 दिन पेशाब  से लग सकता है। 
जो वातरोग एवम संधिवात से ग्रसित है उन्हें पहले सप्तह प्रयोग दिन में तीन बार (सुबह जागते ही , दोपहर में भोजन विश्राम के बाद , थाहा शाम ) करना लाभ कर है 

जल उकडू बैठ कर पीना तथा पिने के बाद खड़े होकर ताड़ासन , त्रियक ताड़ासन  तथा कटिचक्रासन के 5 -5 बार करना अधिक लाभ करता है। 

इसके अतिरिक्त भूख से काम खाये तथा खूब चबा चबा कर खाये 
खाने के साथ पानी न पिए तथा एक घंटे बाद खूब पानी पिए। 
यह रोगी तथा स्वस्थ सभी के लिए अपनाने योग्य है। 


वैज्ञानिक आधार - शरीर विज्ञानं की दृष्टि  से इसके पीछे निम्न कारण है 
रत में नींद के समय शरीर में काम हलचल होती है लेकिन इस समय पेट द्वारा भोजन पचाकर इसका रस  सारे  शरीर में पहुंचने का क्रम चलता है  रात  में शरीर  हलचल और पानी के काम प्रवाह के कारन शरीर में विषैले तत्व इकठा  है।  प्रातः जागते ही शरीर में पर्याप्त मात्रा में एक साथ पानी पहुंचने से शरीर की आंतरिक धुलाई हो जाती है।  और विजातीय पदर्थो और विष के शरीर से बहार निकलने की क्रिया सुलभ हो जाती है। 
यदि ये विजातीय पदार्थ या विष  बहार न निकले तो ये ही बीमारियों का कारन बनते है। 

उषापान बासी मुँह क्यों करे - मुँह में सोते समय शारीरिक विष की पर्त जैम जाती है एक साथ बहुत सारा पानी पिने से इनका एक हल्का घोल बनकर शरीर में जाता है जो वैक्सीन का काम करता है जिससे शरीर में एंटीबीटीज तैयार होते है इससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है 
यह प्रयोग स्वस्थ - रोगी -गरीब -आमिर सभी के लिए बहुत उपयोगी है इसे स्वयं प्रयोग करे और अपने क्षेत्र में प्रचारित करे।  यह स्वास्थ्य की दृस्टि से बहुत उपयोगी एवं सरहानीय करए है। 

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योग को जाने समझे (अष्टांग योग)

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                                                  योग को जाने समझे   (अष्टांग योग)

आज सभी लोग योग के नाम से परिचित होगे मगर जब भी योग शब्द का जिक्र आता है तो लोग उसे सिर्फ आसन या शारीरिक व्यायाम तक ही सीमित समझते है। मगर सिर्फ आसन ही योग नही है वो मात्रा योग का एक अंग है। महर्षि पतंजलि के अनुसार योग चित्तवृत्ति का निरोध  है

  " योगश्चितवृत्तिनिरोध:।"

 योगसूत्र के रचनाकार पतञ्जलि हैं। योगसूत्र में चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) ही योग है। अर्थात मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ही योग है।
 इसकी  सिद्धि के लिये उन्होंने योग के आठ  'अंग' बताये है  और जिन्हें अष्टांग योग कहाँ गया है अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। 


'यम' और 'नियम' वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं।

यम - यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है :
 (1)अहिंसा,
 (2) सत्य, 
(3) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए लालसा न रखना)
(4) ब्रह्मचर्य
(5) अपरिग्रह (धन संपत्ति का अनावश्यक संचय ना करना)

नियम- इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : 
(1) शौच,
(2) संतोष, 
(3) तप,
(4) स्वाध्याय (स्वयं का अध्ययन)
(5) ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना)। 

आसन-  "स्थिर सुखमासनम्‌" आसन से तात्पर्य है स्थिरभाव से सुखपूर्वक बहुत समय तक बैठ सके वही आसन है।

प्राणायाम-प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है प्राण + आयाम अर्थात प्राणों का विस्तार। आसन की स्तिथि में श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है।
प्राणायाम के अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। 

 प्रत्याहार-प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)। अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। 

 धारणा -देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना 'धारणा' कहलाता है।

ध्यान-ध्यान धारणा से आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। 

समाधि-ध्यान की परिपक्वास्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत्‌ हो जाता है यही समाधि की दशा कहलाती है।

अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम 'संयम' है जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है। 

कालांतर में योग की विभिन्न शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर प्रभाव डाला। "चित्तवृत्ति निरोध" को योग मानकर यम, नियम, आसन आदि योग का मूल सिद्धांत उपस्थित किये गये हैं। प्रत्यक्ष रूप में हठयोग, राजयोग और ज्ञानयोग - तीनों का मौलिक यहाँ मिल जाता है। इस पर भी अनेक ग्रन्थ  लिखे गये हैं। आसन, प्रणायाम, समाधि आदि विवेचना और व्याख्या की प्रेरणा लेकर बहुत से स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना हुई। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें 'विभूति' या 'सिद्धि' कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, ।

अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ अलग-अलग चरणों वाला नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है।
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What is Yoga ( astang yoga)

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan

What is Yoga ( astang yoga)

Some time we refer yoga as the ashan or posture or physical exercise. but that asana and physical exercise are only a part of yoga which give strength to our body and makes us  free from many diseases .Maharishi Patanjali define yoga in his yoga shutra as follows

योग: चित्त-वृत्ति निरोध:
yogah citta-vṛtti-nirodhaḥ
 which means "Yoga is the inhibition (nirodhaḥ) of the "waves" or "disturbance" (vṛtti) of the "mind" or "consciousness” or “memory,” (citta)".Swami Vivekananda translates the sutra as "Yoga is restraining the mind-stuff (Citta) from taking various forms (Vrittis)."

In patanjali yoga shutra maharashi patanjali discribe eight limbs of yoga

Eight components or Limbs of yoga

In Patanjali yoga shutra there are eight limbs or aspects of yoga



1. Yamas

Yamas are ethical rules in meny religions like  Hinduism , Buddhism and Jainism and can be thought of as moral imperatives. Maharishi Patanjali listed The five yamas in Patanjali in Yogasutra 
  1. Ahiṃsā (अहिंसा): Nonviolence, non-harming other living beings
  2. Satya (सत्य): truthfulness, non-falsehood
  3. Asteya (अस्तेय): non-stealing
  4. Brahmacārya (ब्रह्मचर्य): chastity, marital fidelity or sexual restraint
  5. Aparigraha (अपरिग्रहः): non-avarice,non-possessiveness
Patanjali,  states how and why each of the above self restraints help in the personal growth of an individual. 

2. Niyama

The second Limbs of Patanjali's Yoga path is called niyama, which includes habits, behaviors  the niyamas are
  1. Saucha: purity, clearness of mind, speech and body
  2. Santoṣa: satisfaction ,contentment, acceptance of others,  optimism for self
  3. Tapas: persistence, perseverance
  4. Svadhyaya: study of Vedas and other knowledgeable books, study of self, self-reflection, introspection of self's thoughts, speeches and actions
  5. Isvarapraṇidhana: contemplation of the Ishvara (God/Supreme Being, True Self)

As with the Yamas, Patanjali explains how and why each of the above Niyamas help in the personal growth of an individual

3. Asana

Patanjali begins discussion of Asana (आसन, posture) by defining it  as follows
स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥
 An asana is what is steady and pleasant.
Asana is thus a posture that one can hold for a period of time, staying relaxed, steady, comfortable and motionless. Patanjali does not list any specific asana, except the suggestion, "posture one can hold with comfort and motionlessness".  The posture that causes pain or restlessness is not a yogic posture. Other secondary texts studying Patanjali's sutra state that one requirement of correct posture is to keep breast, neck and head erect (proper spinal posture)
yoga scholars developed, described and commented on numerous postures. Padmasana (lotus), Veerasana (heroic), Bhadrasana (decent)
The Hatha Yoga Pradipika describes the technique of 84 asanas, stating four of these as most important: Padmasana (lotus), Bhadrasana (decent), Sinhasana (lion), and Siddhasana (accomplished).


according to some text lord shiva discribed 84 lakh ashan

4. Praṇayama

Praṇayama is made out of two Sanskrit words praṇa (प्राण, breath)  and ayama (आयाम, restraining, extending, stretching)
After a desired posture has been achieved, the next limb of yoga, praṇayama, which is the practice of consciously regulating breath (inhalation and exhalation) This is done in several ways, inhaling and then suspending exhalation for a period, exhaling and then suspending inhalation for a period, slowing the inhalation and exhalation, consciously changing the time/length of breath (deep, short breathing)

5. Pratyahara

Pratyahara is a combination of two Sanskrit words prati- (the prefix प्रति-, "towards") and ahara (आहार, "bring near")
Pratyahara is bringing near one's awareness and one's thoughts to within. It is a process of withdrawing one's thoughts from external objects, things, person, situation. It is turning one's attention to one's true Self, one's inner world, experiencing and examining self. It is a step of self extraction and abstraction. Pratyahara is not consciously closing one's eyes to the sensory world, it is consciously closing one's mind processes to the sensory world. Pratyahara empowers one to stop being controlled by the external world, and take one's attention to seek self-knowledge and experience the freedom innate in one's inner world

6. Dharaṇa

Dharana (Sanskrit: धारणा) means concentration, introspective focus 
Dharana as the sixth limb of yoga, is holding one's mind onto a particular inner state, subject or topic of one's mind. The mind (not sensory organ) is fixed on a mantra, or one's breath or any part of body, or an object one wants to observe,  Fixing the mind means one-pointed focus, without drifting of mind, and without jumping from one topic to another.

7. Dhyana

Dhyana (Sanskrit: ध्यान) simply known as meditation literally means "profound contemplation"
Dhyana is contemplating, reflecting on whatever Dharana has focused on. If in the sixth limb of yoga one focused on a personal deity, Dhyana is its contemplation. Dhyana is uninterrupted train of thought, current of cognition, flow of awareness.
Dhyana is integrally related to Dharana, one leads to other. Dharana is a state of mind, Dhyana the process of mind. Dhyana is distinct from Dharana in that the meditator becomes actively engaged with its focus. Patanjali defines contemplation (Dhyana) as the mind process, where the mind is fixed on something, and then there is "a course of uniform modification of knowledge".  Dhyana is the yoga state when there is only the "stream of continuous thought about the object, uninterrupted by other thoughts of different kind for the same object"; Dharana, states is focussed on one object, but aware of its many aspects and ideas about the same object. 

8. Samadhi


Samadhi (Sanskrit: समाधि) literally means "putting together, joining, combining with, union, harmonious whole, trance"
Samadhi is oneness with the subject of meditation. There is no distinction, during the eighth limb of yoga, between the actor of meditation, the act of meditation and the subject of meditation. Samadhi is that spiritual state when one's mind is so absorbed in whatever it is contemplating on, that the mind loses the sense of its own identity. The thinker, the thought process and the thought fuse with the subject of thought. There is only oneness, samadhi.

yoga is a group of physicalmental, and spiritual practices or disciplines. Yoga has been studied and may be recommended to promote relaxation, reduce stress and improve some medical conditions . In today's age yoga is adopted as holistic health care. There are many yoga school in India. 
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